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________________ ११४ श्री कवि किशनसिंह विरचित याके जोर सेती जीव दरसन सुधताको, लहै नांही ऐसैं जिनराजजी बताय हैं ॥७१३ ॥ क्रोध जो अप्रत्याख्यान हल रेखावत जानि, मान अस्थि थंभ मांनि दुष्टता गहाय है | माया अजा शृंग जानि लोभ है मजीठ रंग, इनके उदैतैं जीव तिरयंच थाय है । जब ही अप्रत्याख्यान चौकडीको उदै होय, जाकै एक वरष लों थिरता रहाय है । जो लों याको बल तो लों श्रावकके व्रतनिको, धर सकै नाहि जिनराजजी बताय हैं ॥७१४ ॥ प्रत्याख्यान क्रोध धूलिरेखा परमान कह्यो, मान काठ थंभ माया गोमूत्र समान है। लोभ कसुंभाको रंग एई चारों प्रत्याख्यान, इनके उदैतैं पावे नरपद थान है। प्रत्याख्यान कषाय प्रगट उदै होत संतैं, च्यारि मास परजंत रहे जानो जान है । याहीको विपाकसो न सकति प्रकट होत, मुनिराज व्रत धरि सकै न प्रमान है ॥७१५॥ तक वह जन्मपर्यन्त वैरभावको नहीं छोड़ता है । इसके प्रभावसे जीव सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको प्राप्त नहीं होता, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ||७१३॥ अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोध हलकी रेखाके समान है, मान हड्डीके खम्भके समान है, माया बकरीके सींगके समान है और लोभ मजीठके रंगके समान है । इनके उदयसे जीव तिर्यंचगतिको प्राप्त होता है। जब तक अप्रत्याख्यानावरणकी चौकड़ीका उदय रहता है तब तक कषायका संस्कार एक वर्ष तक स्थिर रहता है। जब तक इसका बल रहता है तब तक यह जीव श्रावकके व्रत ग्रहण नहीं कर सकता, ऐसा जिनराजने बतलाया है ।। ७१४|| प्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोध धूलिरेखाके समान है, मान काठके खम्भके समान है, माया गोमूत्र के समान हैं और लोभ कुसुम्भके रंगके समान है । इस प्रत्याख्यानावरणकी चौकड़ीके उदयसे जीव मनुष्य गतिको प्राप्त होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहने पर चार माह तक वैरभाव चलता है। इसके उदयसे जीव मुनिराजके व्रत धारण नहीं कर सकता ।। ७१५॥ १ लहाय है स० कहाय न० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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