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क्रियाकोष
११३
प्रायश्चित्त वहै दोष गुरु 4 खमाय तब,
विनै तप गुणवृद्धिकी जो विनो कीजिये। वैयावृत्त तप गुणधारी वैयावृत्त कीजै,
स्वाध्याय जिनागम त्रिकालमें पढीजिये । व्युतसर्ग खडा होय ध्यान धरिवे कौं नाम,
ध्यान निज आतमीक गुण निरखीजिये । बाहिज अभ्यंतरके तप भेद जानि पालि, अनुक्रमि यातें गुणथानक चढीजिये ॥७११॥
दोहा द्वादश तप वरनन कियो, जिनवर भाष्यो जेम । कछु विशेष समभावको, 'कहूँ यथामति तेम ॥७१२॥
समभाव वर्णन
सवैया अनंतानुबंधी क्रोध पाषाणकी रेखा सम,
मान थंभ पाहन समान दुखदाय है। वंस विडावत माया लोभ लाख रंग जानि,
इनके उदैते जीव नरक लहाय है। जब लग अनंतानुबंधी चौकडीको धरै,
जनम प्रयंत जाको संग न तजाय है। गुरुके पास जा कर दोषोंको क्षमा कराना प्रायश्चित्त तप है। गुणोंसे वृद्ध मुनियोंकी विनय करना विनय तप है। गुणीजनोंकी सेवा करना वैयावृत्य तप है। जिनागमका त्रिकाल-प्रातः, मध्याह्न और अपराह्नमें पढ़ना स्वाध्याय तप है। खड़े होकर ध्यान करना व्युत्सर्ग तप है तथा आत्माके गुणोंका चिन्तन करना ध्यान तप है। ये छह अभ्यन्तर तप हैं। इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तर तपके भेदोंको जान कर तथा उनका पालन कर क्रमसे उपरितन गुणस्थानों पर चढ़ना चाहिये ॥७११॥
कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हमने जिनेन्द्र भगवानके कहे अनुसार बारह तपोंका वर्णन किया । अब यथाबुद्धि समभावका कुछ विशेष वर्णन करते हैं ॥७१२॥
अनन्तानुबंधी क्रोध पाषाणकी रेखाके समान है, मान पाषाणके खम्भके समान है, माया वाँसके भिडेके समान है और लोभ, लाखके रंगके समान है। इन चारोंके उदयसे जीव नरकगतिको प्राप्त होता है। जब तक जीव अनन्तानुबंधीकी चौकड़ीको धारण करता है तब
१ कहूं यथाप्रति प्रेम न.
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