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क्रियाकोष
संज्वलन क्रोध जलरेखा वत कह्यो जिन, मान वेतलताकी सी नवनि प्रधान है । माया है चमर जैसी लोभ हरदीको रंग, इनके उदैतैं पावे सुरग विमान है । चौथी हु कषाय चौकडीको उदै पाय ताकै,
च्यार पक्ष तांऊ जाकै प्रबल महान है यथाख्यात चारित्रको धरि सकै नाहि मुनि, तीर्थङ्कर गोत्रहू जो बांधै यों बखान है ॥ ७१६॥
चौपाई
सोलह कषाय चौकरी च्यार, नोकषाय नव नाम विचार । हासि अरति रति सोक बखान, भय 'जुगुप्सा ए षट जान ॥ ७१७॥
वनिता पुरुष नपुंसक वेद, ए नव मिलैं पचीस जु भेद । इनको उपसम करिहै जबै, समकित हियै सुभ किरिया तबै ॥ ७१८॥
संज्वलन क्रोध, जलरेखाके समान जिनेन्द्र भगवानने कहा है । मान वेत्रलताकी नम्रताके समान बताया है। माया, चमरके समान और लोभ हल्दीके रंगके समान कहा हैं । इनके उदयसे जीव स्वर्गके विमान प्राप्त करता है । संज्वलन चौकड़ीके उदयमें कषायका संस्कार चार पक्ष अर्थात् दो माह तक चलता है । इसके प्रभावसे मुनि यथाख्यात चारित्र धारण नहीं कर सकते परंतु तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध कर सकते हैं ऐसा जिनागममें कथन है || ७१६ ||
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विशेषार्थ - * गोम्मटसार कर्मकाण्डमें संज्वलनका वासनाकाल एक अन्तर्मुहूर्त, प्रत्याख्यानावरणका एक पक्ष, अप्रत्याख्यानावरणका छह माह और अनन्तानुबंधीका संख्यात असंख्यात तथा अनंत भव तक बतलाया है । यहाँ ग्रन्थकारने अनन्तानुबंधी आदिका जो जन्म पर्यन्त, एक वर्ष, चार माह तथा दो माह तक संस्कारकाल कहा है उसका आधार विदित नहीं होता । ७१३-७१६।
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अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्यानावरणीय तथा संज्वलन इन चार चौकड़ियोंके सोलह कषाय तथा नौ नोकषाय, सब मिल कर पच्चीस कषाय होते हैं । हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद ये तीन वेद, सब मिल कर नौ नोकषाय कहलाते हैं । इन पच्चीस कषायोंका जब उपशम होता है तभी साम्यभाव होता है और तभी सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है ।। ७१७-७१८।।
आगे ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करते हैं
१ दुरगंछा स० न०
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अंतोमुहुत्त पक्खं छम्मासं संखऽसंखणंत भवं । संजलणमादियाणं वासणकालो दु णियमेण || ४६ ||
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