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________________ क्रियाकोष १११ इतने जोग मिलाय उपाय न कछु वहै, मरण निकट निज जानि विचारै मन तहै। ध्याय आराधन धर्म निमित तनको तजै, सो नर परम सुजान स्वर्गशिवसुख भजे ॥७०२॥ आराधनाके अतिचार छन्द चाल संलेखणकी जो वार, जीवनकी आसा धार । लोगनिके मुख अधिकाई, निज महिमा लखि हरषाई ॥७०३॥ निजको लखि दुख अर लोक, करिहै न प्रतिष्ठा थोक । महिमा कछु सुणय न कांनि, मरवो जब ही मनि आंनि ॥७०४॥ मित्रनिसों करि अति नेह, पूरव क्रीडा की जेह । करि यादि मित्र जुत रागै, अतीचार तृतीय सु लागै ॥७०५॥ भुगत्या सुख इह भवमांही, निज मन ही याद करांही । चौथो अतिचार सुजानी, पंचम सुणिये भवि प्राणी ॥७०६॥ वृद्धावस्था आनेसे शरीर जर्जरित हो जावे, शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जावे, अथवा शरीरमें ऐसा असहनीय रोग हो जावे, जो मृत्युके समान दुःखका कारण हो; इतने योग मिलने पर जब कुछ उपाय चलता नहीं दीखे तब अपना मरण निकट जान कर मनमें आराधनाओंका विचार करना चाहिये। जो ज्ञानी पुरुष आराधनाओंका ध्यान कर धर्मके निमित्त शरीरका त्याग करता है वह स्वर्ग और मोक्षके सुख प्राप्त करता है* ॥७०१-७०२।। आराधनाके अतिचार सल्लेखनाके समय लोगोंके मुखसे अपनी अधिक महिमा सुन कर हर्षित होना तथा अधिक काल तक जीवित रहनेकी इच्छा करना जीविताशंसा नामका पहला अतिचार हैं ॥७०३।। अपने आपको अधिक दुःख हो रहा हो, लोग प्रशंसा न करते हो तथा अपनी महिमा सुनने में न आती हो, इस स्थितिमें जल्दी मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा नामका दूसरा अतिचार है ॥७०४॥ जिन मित्रोंके साथ पहले क्रीड़ा की थी उनसे अधिक स्नेह रखना तथा उनका स्मरण करना मित्रानुराग नामका तीसरा अतिचार है ॥७०५॥ इस भवमें जो सुख भोगा था उसका मनमें स्मरण करना, यह सुखानुबन्ध नामका चौथा अतिचार है। हे भव्यजनों! अब पाँचवें अतिचारका वर्णन सुनो ॥७०६।। * उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनामाहुः सल्लेखनमार्याः ।।-समन्तभद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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