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श्री कवि किशनसिंह विरचित सत्ताईस पंच इंद्रीनिके विषयाको त्याग, __ बाहिज अभ्यंतर परिग्रहको टारिये । संकलप विकलप मनतें सकल तजि,
आतमीक ध्यानतें सुधातमा यों धारिये । परकरमादि सेती जुदो यासों कर्म जुदो, निश्चय चारित्र यों आराधना विचारिये ॥६९७।।
अडिल्ल छन्द जो कोऊ नर मनमें इच्छा धरतु है, फिरि परिणाम संकोच निरोधहि करतु है। सो आराधन निश्चय तप परमानिये, तप इच्छादि निरोध यही मन आनिये ॥६९८॥
दोहा निश्चे चहुं आराधना, ग्रन्थ प्रमाण बखान । किसनसिंह धरिहै सुधी, सो शिव लहै निदान ॥६९९॥ ए चहुं विधि आराधना, धरै कौन प्रस्ताव । सो भविजन सुनि लीजिये,मन वच बुध करि भाव ॥७००॥
अडिल्ल छन्द जो कोऊ उपसर्ग मरण सम आय है, कै दुरभिक्ष पडै कछु कारण पाय है। जरा अधिक बल जरजर सक्ति न सहै तबै,
कै तन रोग अपार मृत्युसम दुख जबै ॥७०१॥ पाँच इन्द्रियोंके सत्ताईस (८+५+२+५+७=२७) विषयोंका त्याग कर बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको छोड़ते हैं, जो समस्त संकल्प विकल्पोंको मनसे दूर कर शुद्ध आत्मध्यानको धारण करते हैं, जो समस्त परिकर्मसे जुदे रहते हैं तथा परिकर्म जिनसे जुदा रहता है वे निश्चय सम्यक्चारित्र आराधनाके धारक हैं, ऐसा विचार करना चाहिये ॥६९७।। जो कोई मनुष्य प्रारम्भमें मनमें इच्छाएँ धारण करता है पश्चात् परिणामोंको संकुचित कर उन इच्छाओंका निरोध करता है, यही निश्चयनयसे निश्चय तप आराधना है, ऐसा मनमें विचार करना चाहिये ॥६९८॥ कविराज किशनसिंह कहते हैं कि हमने आगमप्रमाणसे चार निश्चय आराधनाओंका वर्णन किया है। जो ज्ञानीपुरुष इन्हें धारण करता है वह अंतमें मोक्षको प्राप्त होता है ॥६९९॥ इन चारों प्रकारकी आराधनाओंको कौन पुरुष धारण करता है ? यह हे भव्यजनों ! मन, वचन तथा भावपूर्वक सुन लीजिये ॥७००॥
यदि मरणके समान भयंकर उपसर्ग आ जावे, कुछ कारणवश दुर्भिक्ष पड़ जावे, अत्यधिक
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