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________________ क्रियाकोष १०९ सवैया आतमके ग्यान करि अष्ट महा गुणधर, दरसन ग्यान सुख वीरज अनंत है। निहचै नयेन आठ करमनिसौं विमुक्त, ऐसो आतमाको जानि कहिये महंत है। ताहि सुधी चेतन उपरि श्रद्धा रुचि परि तीति चित अचल करत जे वे संत हैं। निश्चय आराधना कही है दरसन याहि, भावै अंत समय सु केवल लहंत है॥६९५॥ पुनः; निज भेदग्यान करि सुधातम तत्त्वनिकों, चेतन अचेतन स्वकीय परमानी है। सप्त तत्त्व नव पदारथ षट द्रव्य पंचा सतीकाय उत्तर प्रकृती मूल जानी है। इनको विचार वारंवार चित्त अवधार, ज्ञानवान सुध चेतनाको उर आनी है। संन्यास समय अंत काल ऐसे भाइए तो, निश्चय आराधना सुबोध यों बखानी है।६९६॥ पुनः, प्रथमहि अठाईस मूल गुणधार पंच, परकार निरग्रंथ गुण हिय धारिये । ___ जो आठ महान गुणोंका धारी है, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत बलसे सहित है, तथा निश्चय नयकी अपेक्षा आठ कर्मोंसे रहित है ऐसे आत्माकी जो ज्ञानी जन श्रद्धा, रुचि या प्रतीति करते हैं वे महान सत्पुरुष निश्चय सम्यग्दर्शन आराधनाके धारक हैं। जो अन्त समयमें इस आराधनाकी भावना करते हैं वे केवलज्ञानको प्राप्त होते हैं ॥६९५॥ जो स्वकीय भेदविज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्मतत्त्वको पहिचान कर चेतन अचेतन तत्त्वोंके भेदको समझते हैं, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छह द्रव्य और पंचास्तिकायका स्वरूप जान कर मूल प्रकृतियोंको तथा उत्तर प्रकृतियोंको जानते हैं, चित्तमें इनका बार बार विचार करते हैं वे ज्ञानी ही शुद्धज्ञान चेतनाको हृदयमें धारण करते हुए अन्त समयमें संन्यास धारण करते हैं। वे निश्चय सम्यग्ज्ञान आराधक हैं। अब आगे सविकल्प सम्यक् चारित्र आराधनाका वर्णन करते हैं ॥६९६॥ जो सर्वप्रथम अट्ठाईस मूल गुणोंको धारण कर पुलाक वकुश कुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक इन पाँच निर्ग्रन्थ मुनियोंके गुणोंको हृदयमें धारण करते हैं अर्थात् उनका चिन्तन करते हैं; जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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