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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तेरह प्रकारके चारित्रका वर्णन
अडिल्ल छन्द वरत अहिंसा अनृत अचौरज तीसरो, ब्रह्मचरिज व्रत पंचम आकिंचन खरो; मन वच तन तिहुं गुपति पंच समिति जु सही, ए चारित आराधन तेरा विधि कही ॥६९०॥ अनसन आमोदर्य वस्तु संख्या गनी, रस परित्याग रु विवकत सय्यासन भनी; काय क्लेश मिलि छह तप बाहिजके भये, षट् प्रकार अभ्यंतर आगम वरणये ॥६९१॥ प्रायश्चित अरु विनय वैयावृत जानिये, स्वाध्याय रु व्युत्सर्ग ध्यान परमानिये; मिलि बाहिज अभ्यंतर बारा विधि लिखी, तप आराधन एह जिनागममें अखी ॥६९२॥
दोहा दरसण ग्यान चरित्र तप, आराधन विवहार । अंत समै भावै व्रती, सुरसुख शिव दातार ॥६९३॥ निश्चय आराधनाका वर्णन
दोहा अब निश्चै आराधना, वरणों चार प्रकार ।
आराधक शिवपद लहै, यामें फेर न सार ॥६९४॥ - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ, सब मिलाकर तेरह प्रकारका चारित्र कहलाता है॥६९०॥ अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप हैं। दोनों मिला कर बारह प्रकारके तप होते हैं इन्हें धारण करना जिनागममें तप आराधना कहा गया है ॥६९१-६९२॥ व्रती मनुष्यको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप इन चार प्रकारकी व्यवहार आराधनाओंकी अन्त समय अच्छी तरह भावना करनी चाहिये। ये भावनाएँ स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाली हैं ॥६९३॥
आगे चार प्रकारकी निश्चय आराधनाओंका वर्णन करते हैं जिनकी आराधना करनेवाला मोक्षपदको प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ॥६९४॥
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