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________________ क्रियाकोष १०७ आगम अरथ सुजाणिकै, सुध उच्चार करेहि । अरथ समस्त संदेह विनु, जो सिद्धांत पढेहि ॥६८२॥ अर्थ समय सु नाम तसु, जानि लेहु निरधार । सबदारथोभय पूरणको, आगे सुणो विचार ॥६८३॥ व्याकरणादी अरथकौं, लखिवि नाम अभिधान । अंगपूर्व श्रुत सकलकौ, करै पाठ जे जान ॥६८४॥ पूर्वान्हिक मध्यान्ह फुनि, अपरान्हिक तिहुं काल । विनु आगम पढिये नहीं, कालाध्ययन विसाल ॥६८५॥ सरस गरिष्ठ आहारकौं, तजि करि आगम पाठ । गुण उपधान समृद्धि इह, महा पुन्यको ठाठ ॥६८६॥ प्रथम पूज्य श्रुत भक्ति युत, पढिहै आगम सार । सुखकर जानो नाम तसु, प्रगट विनय आचार ॥६८७॥ गुरु पाठक श्रुत भक्तियुत, पठत विना संदेह । गुर्वाधनपन्हव प्रगट, सप्तम नाम सु एह ॥६८८॥ पूजा आसन मान बहु, चित धरि भक्ति प्रसिद्ध । श्रुत अभ्यास सु कीजिये, सो बहुमान समृद्ध ॥६८९॥ आगमका अर्थ जानकर उसका शुद्ध उच्चारण करना, तथा उसमें संदेह न रखते हुए स्वाध्याय करना सो अर्थशुद्धि नामक दूसरा अंग है। शब्द और अर्थ दोनोंकी शुद्धिको उभयशुद्धि कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि व्याकरणादिके अनुसार शब्द अर्थका विचार करते हुए अंग पूर्व रूप समस्त शास्त्रोंको पढ़ना यह उभयशुद्धि है ॥६८२-६८४॥ पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न, ये स्वाध्यायके तीन काल हैं इन्हें छोड़कर अन्य कालमें आगमको नहीं पढ़ना यह कालाध्ययन अंग है॥६८५।। सरस एवं गरिष्ठ आहारका त्याग कर सात्त्विक आहार लेना और आलस्य रहित होकर सावधानीसे आगमका स्वाध्याय करना, यह उपधान नामका अंग है। यह अंग महान पुण्यका कारण है ।।६८६।। श्रुतभक्ति पूर्वक पूज्य आगम ग्रन्थोंका स्वाध्याय करना, यह सुखकारक विनयाचार नामका अंग है ॥६८७।। गुरु, पाठक और शास्त्रका नाम न छिपाते हुए संदेह रहित होकर स्वाध्याय करना, यह गुरुआदिक अनपह्नव नामका सातवाँ अंग है ॥६८८॥ श्रुतपूजा कर तथा अच्छे आसनसे बैठ कर हृदयमें बहुत सन्मान रखते हुए भक्तिपूर्वक शास्त्रका अभ्यास करना यह बहुमान नामका आठवाँ अंग है ॥६८९।। आगे तेरह प्रकारके चारित्रका वर्णन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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