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________________ १०२ श्री कवि किशनसिंह विरचित दोहा नित्य नेम सत्रह तणो, कथन कियो सुखदाय । अंतराय श्रावक तणा, अब भवि सुणी मन लाय ॥६५४॥ श्रावकके सात अन्तरायोंका कथन चौपाई जिनमत अंतराय जे सात, श्रावकके भाष्ये विख्यात । रुधिर देखियो नाम सुनेइ, तब बुधजन आहार तजि देइ ॥६५५॥ मांस नजर देखै सुनि नाम, भोजन तजे विवेकी राम । नैननि देखै आलो चर्म, असन तजै उपजै बहु धर्म ॥६५६॥ हाड राधि अरु मूवो जीव, नजर निहारि श्रवण सुनि लीव ।। ततक्षण अन्न छांडि सो देइ, अंतराय पालक 'जन जेइ॥६५७॥ दोहा सोंह करै जिह वस्तुकौ, प्रथमहि सौं फिरि कोइ । २सो लै थालीमें धरै, अंतराय जो होइ॥६५८॥ श्लोक एकमें सात ए, कह्यौ सबनको भेव । तिह सिवाय भाषे अवर, सो ब्योरो सुनि लेव ॥६५९।। चंडालादिक नर जिते, हीन करम करतार । तिनहि लखत वचनहि सुणत, अंतराय निरधार ॥६६०॥ इस तरह नित्य ही लेने योग्य सुखदायक सत्रह नियमोंका कथन किया। अब आगे श्रावकके अन्तरायका कथन करता हूँ सो हे भव्य जनों! उसे मन लगा कर सुनो ॥६५४॥ जिनमतमें श्रावकके सात अन्तराय प्रसिद्ध है। (१) भोजन करते समय यदि रुधिर देखनेमें आये या उसका नाम सुननेमें आये तो भोजन छोड़ देना चाहिये । (२) यदि मांस देखने में आये या उसका नाम सुननेमें आये तो विवेकीजनोंको भोजन छोड़ देना चाहिये। (३) आँखोंसे यदि गीला चर्म देखनेमें आये तो भोजन छोड़ देनेसे बहुत धर्म होता है। (४) (५) (६) हड्डी, पीब और मृत जीव देखनेमें आये या कानोंसे उनका नाम सुननेमें आये तो अन्तरायका पालन करनेवाले पुरुषोंको तत्काल भोजन छोड़ देना चाहिये। (७) जिस वस्तुका पहले त्याग किया हो उस वस्तुको यदि कोई भोजनकी थालीमें रख दे तो अन्तराय होता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि एक श्लोकमें ये सात अंतराय कहे हैं सो उनका वर्णन किया। अब इनके सिवाय जो और भी अन्तराय हैं उनका वर्णन सुनो ॥६५५-६५९॥ नीच कार्यके करनेवाले चाण्डालादिक जितने मनुष्य हैं उन्हें देखनेसे या उनके वचन १ नर तेइ न० स० २ जेवत भाजनमें धरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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