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क्रियाकोष
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सचित वस्तुकी संख्या जाण, धान बीज फल फूल वखाण । पाणी पत्र आदि लखि जेह, मिरच सुपारी डोंडा एह ॥६४७॥ सारे फल सगरे हैं जिते, सचित मांहि भाषे हैं तिते । मरजादा मुकती जे मांहि, बाकी सबकौं भीटै नांहि ॥६४८॥ संख्या वसत तणी जे धरै, सकल दरवकी गिणती करै । खिचडी लाडू खाटो खीर, औषध रस चूरण गणि धीर ॥६४९॥ बहुत दरव मिलि जो निपजेह, गिणतीमांहि एक गणि लेह । राखै दरव जिते उनमान, सांझ लगै गिणि लै बुधिमान ॥६५०॥ सांझ करै सामायिक जबै, सत्रह नेम संभारे तबै । अतीचार लागै जो कोय, सक्ति प्रमाण दण्ड ले सोय ॥६५१॥ बहुरि आखडी जे निसि जोग, धारि निवाह करै भवि लोय । इह विध नित्यनियम मरयाद, पालै धरि भवि चित अहलाद ॥६५२॥ महापुन्यको कारन सही, इह भवतें सुभ सुरगति लही ।
अनुक्रमतें है है निरवाण, बुधजन मन संसै नहि आण ॥६५३॥ व्रती मनुष्यको सचित्त वस्तुओंकी भी संख्या निश्चित करनी चाहिये अर्थात् ऐसा नियम लेना चाहिये कि मैं इतनी सचित्त वस्तुएँ लूँगा । अनाज, बीज, फल, फूल, पानी, पान, मिर्च, सुपारी, डोंड़ा आदि जितने फल हैं वे सब योनिभूत होनेसे सचित्त पदार्थों में कहे गये हैं। जितनेकी मर्यादा रक्खी है उतनेका सेवन करें, बाकी सबका त्याग करे॥६४७-६४८॥
सचित्तकी ही नहीं, उपयोगमें आनेवाली सभी वस्तुओंकी संख्या निश्चित करनी चाहिये। खिचड़ी, लाडू, खटाई, खीर, औषध, रस, चूर्ण आदि वस्तुओंमें मैं इतनी वस्तुएँ लूँगा, अधिक नहीं। अनेक वस्तुओंको मिला कर जो औषध या चूर्ण आदि बनते हैं उन्हें गिनतीमें एक ही समझना चाहिये। जितनी वस्तुओंका प्रमाण किया है उन्हें सायंकाल तक गिन लेना चाहिये अर्थात् मैंने जितनी वस्तुओंकी संख्या निर्धारित की थी उनमें कितनी ली, कितनी नहीं ली। संध्याकालमें जब सामायिक करे तब उपर्युक्त सत्रह नियमोंकी संभाल कर ले। यदि किसी नियममें दोष लगा हो तो शक्ति प्रमाण उसका दण्ड ग्रहण करे। पश्चात् रात्रिके योग्य नियम लेकर उसका निर्वाह करना चाहिये । ग्रंथकार कहते हैं कि जो भव्यजीव हृदयमें आह्लाद धारण कर नित्य ही नियम-मर्यादाओंका पालन करता है उसे महान पुण्यका बन्ध होता है। वह इस भवसे देवगतिको प्राप्त होता है और अनुक्रमसे निर्वाणको प्राप्त होता है। ज्ञानी जनोंको मनमें संशय नहीं करना चाहिये ॥६४९-६५३।।
१गणि लीजे तिते स०
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