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क्रियाकोष
मल देखत फुनि नाम सुनि, असन तुरत तजि देह । सो व्रतधर श्रावक सही, अन्य दुष्टता गेह ॥ ६६९॥ जिन प्रतिमा अरु गुरुनिकौं, कष्ट उपद्रव थाय । सुनि श्रावक जन असन तजि, उपवासादि कराय || ६६२॥ पुस्तादिक जल अगनिकौ, उपसर्ग हुवो जानि । भोजन तजि फुनि करय भवि, उपवासादि वखानि ||६६३ ॥ नितप्रति श्रावककौं कहे, अंतराय तहकीक । पालैं वे सुभगति लहै, यह जिनमारग ठीक ॥६६४॥ सात प्रकारके मौनका वर्णन दोहा
मौन जिनागममें कहो, सात प्रकार वखानि । तिनकौ वरनन भविक जन, सुनि मन वच क्रम ठानि ॥६६५॥ चौपाई
प्रथम मौन जल स्नान करंत, दूजी पूजा श्री अरहंत । भोजन करतां बोलै नहीं, चौथी सतवन पढौं कही || ६६६॥
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सेवत काम मौनकौं गहे, एह वचन जिन आगम कहै । मल मूत्रहि खेपै जिहि वार, ए लखि सात मौन निरधार ||६६७||
सुनने से अन्तराय होता है ||६६०|| मलको देखते ही या उसका नाम सुनते ही तत्काल भोजन छोड़ देना चाहिये । जो अन्तराय पालता है वही व्रतधारी सही श्रावक है और शेष जन दुष्टताके घर हैं ।।६६१।। जिनप्रतिमा और गुरुओं पर कष्ट या उपद्रवकी बात सुन कर श्रावकको भोजन छोड़ देना चाहिये । यदि भोजन शुरू नहीं किया हो तो उपवासादि करना चाहिये || ६६२ || शास्त्र आदि पर पानी या अग्निका उपसर्ग हुआ जान कर भोजन छोड़ देना चाहिये और उपवासादि करना चाहिये ॥ ६६३||
श्रावकके ये नित्य प्रति टालने योग्य अन्तराय कहे हैं। जो इनका पालन करते हैं वे शुभ गतिको प्राप्त होते हैं। यह यथार्थ जिनमार्ग है-चरणानुयोगकी पद्धति है ॥ ६६४||
जिनागममें सात प्रकारके मौन कहे गये हैं । हे भव्यजनों! मन, वचन, कायसे उनका वर्णन सुनो || ६६५ || पहला मौन स्नान करते समय रखना चाहिये। दूसरा मौन अरिहंत देवकी पूजा करते समय, तीसरा मौन भोजन करते समय, चौथा मौन स्तुति पढ़ते हुए, पाँचवाँ मौन कामसेवन करते समय, छठवाँ मौन शौचबाधासे निवृत्त होते समय और सातवाँ मौन लघुशंका करते समय रखना चाहिये । इस प्रकार ये मौनके सात स्थान कहे गये हैं ।। ६६६-६६७ ।
१ विषय स०
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