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क्रियाकोष
दयादानतैं कीरति लहै, सगरे भले भले यों कहै । निज भावा माफिक गति थाय, दान दियो अहलो नहि जाय ||६०७॥
दोहा
पात्र कुपात्र अपात्रकौ, पूरो भयो विशेष ।
अबै अन्य मत दान दस, कहौ कथन अब शेष || ६०८ || सवैया
गऊ हेम गज गेह वाजि भूमि तिल जेह, त्रिया दासी रथ इह दस दान थाय है; इनकूं कौ कथन करै या सठ जानि लेह,
दानको दिवाय नरकादिक लहाय है; हिंसादिक कारणे अनेक पापरूप जाणि,
अवर लिवैया दुरगतिको सिधाय है; अति ही कलंक निंद्यधाम पुन्यको न लेस, मतिमान लैनदैन दुहूंको तजाय है ॥ ६०९॥
दोहा दसौ दान अनमति तणां, जैनी जन जो देइ । अघ हिंसादि बढायकै, कुगति तणा फल लेइ ॥६१०॥ (इति चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कथन संपूर्ण )
ज्ञानको प्राप्त होता है, समवसरणका निर्विकार वैभव प्राप्त करता है तथा तीर्थंकरका सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करता है || ६०६ || दया दानसे इस भवमें उत्तम कीर्तिको प्राप्त होता है, सब लोग भला भला कहते हैं और परभवमें अपने भावोंके अनुसार गतिको प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि दिया हुआ दान कभी निष्फल नहीं जाता ॥ ६०७ || इस प्रकार पात्र, कुपात्र और अपात्र दानका विशेष वर्णन पूर्ण हुआ । अब अन्य मतमें जो दस दान कहे हैं उनका वर्णन करते हैं ॥ ६०८ ॥
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गोदान, सुवर्णदान, गजदान, गृहदान, अश्वदान, भूमिदान, तिलदान, कन्यादान, दासीदान और रथदान ये दश दान लोकमें प्रसिद्ध हैं । इनका कथन कौन करे ? इन्हें तो अज्ञानी भी जानते हैं । इतना अवश्य कहा जाता है कि इन दानोंको देने और दिलानेवाला नरकादिक दुर्गतिको प्राप्त होता है । हिंसादिका कारण होनेसे इन दानोंको पापरूप जानना चाहिये । इन दानोंको लेनेवाला भी दुर्गतिको प्राप्त होता है । ये दान अत्यन्त कलंक और निन्दाके स्थान है इनमें पुण्यका लेश भी नहीं है । यही कारण है कि बुद्धिमान मनुष्य इन दानोंका लेना और देना- दोनोंका त्याग करते हैं ||६०९ ॥
ग्रंथकार कहते हैं कि ये दश प्रकारके दान अन्यमतके दान हैं। जो जैनी जन इन्हें देते हैं वे हिंसादिकको बढ़ा कर कुगतिका फल प्राप्त करते हैं ॥ ६१०||
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