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________________ ९६ श्री कवि किशनसिंह विरचित अतिथिसंविभाग व्रतके अतिचार छन्द चाल निपज्यो गृह मध्य आहार, सिंह लेय सचितपरिहार । अथवा सचित्त मिलि जाई, इह अतीचार कहवाई ||६११॥ फासू धरियो जो दर्व, ढांकै सचित्तसौं सर्व । दूजौ गनिये अतिचार, याहूकूं बुध जन टार ॥६१२॥ आपण नहि देय आहार, औरन कौं कहै विचार । ये ही आहार द्यो भाई, तीजौ दूषण इह थाई ॥६१३|| मुनिको कोइ देइ आहार, चितमें ईर्षा इह धार । हम ऊपर है क्यौं देई, चौथो इह दोष गनेई ॥६१४ ॥ द्वारापेखणकै कालै, गृहकाज करत ' तहां हालै । लंघि गए गेहमैं आवै, पंचम अतिचार कहावै ॥ ६१५॥ दोहा इह अतिथि संविभागकै, अतीचार भनि पांच । इनहि टालि भविजन सदा, जिन वच भाषे सांच ॥ ६१६॥ व्रत द्वादश पूरण भए, पांच अणुव्रत सार । तीन गुणव्रत चार फुनि, शिक्षाव्रत निरधार ॥६१७॥ इस प्रकार चतुर्थ शिक्षाव्रत - अतिथि संविभाग व्रतका कथन पूर्ण कर अब उसके अतिचारोंका विचार करते हैं घरमें जो आहार बना है उसे सचित्तका त्याग कर लेना चाहिये अथवा जिस आहारका सचित्त वस्तुओंसे संबंध हो गया है उसका भी त्याग करना चाहिये । ऐसी वस्तुओंके देने पर सचित्त निक्षेप नामका पहला अतिचार होता है || ६११॥ प्रासुक अचित्त आहार, कमलपत्र आदि सचित्त पदार्थोंसे ढँक कर रखना, यह सचित्तपिधान नामका दूसरा अतिचार है । ज्ञानी जनोंको इसका परिहार करना चाहिये || ६१२|| स्वयं तो आहार नहीं देना किन्तु दूसरोंसे दिलाना यह परव्यपदेश नामका तीसरा अतिचार है ।। ६१३ || कोई श्रावक मुनिको आहार दे रहा हो उसे देख मनमें इस प्रकारकी ईर्षा करना कि यह हमसे ऊपर होकर आहार क्यों दे रहा है ? यह मात्सर्य नामका चौथा अतिचार है ||६१४ || द्वाराप्रेक्षणके समय किसी गृहकार्यके आने पर उसमें लग जाना तथा समय निकल जानेके बाद घर आना, यह कालातिक्रम नामका पाँचवाँ अतिचार है ।।६१५।। अतिथिसंविभाग व्रतके ये पाँच अतिचार कहे हैं । भव्यजीव सदा इसका परिहार करें। ये अतिचार जिनागमके अनुसार यथार्थ कहे गये हैं ||६१६ || पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत १ दर न० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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