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श्री कवि किशनसिंह विरचित
अडिल्ल छन्द
जो पातरके तांई दान दै मानतें, अरु अपात्रकौं कबहु न दे निज जानतें; पात्र दान फल सुरग क्रमहि शिवपद लहै, भोजन दिये अपात्र नरक दुख अति सहै ॥ ६०१ ॥ दया जानि मन आनि दुखित जन देखिकै, रोगग्रस्त तन जानि सकति न विशेषि कै; मनमें करुणा भाव विशेष अणाइदैं, यथायोग जिहि चाहि सु देह वणाइदैं ||६०२|| चौपाई
लहै संपदा भूपति तणी, नाना भोग कहां लौं भणी । उत्तम जाति है कुल सार, 'इह फल पातर दान अहार ||६०३ || अति नीरोग होय तन जास, हरै औरकी व्याधि प्रकास । अति सरूपता औषध दान दियौ पात्रकौ तसु फल जान ||६०४॥ दीघ आयु लहै सो सदा, जगत मान तिहकी सुभगदा । सुरनर सुखकी कितियक वात, अभय थकी तदभव शिवपात ॥ ६०५ ॥ शास्त्रदान देवातें सही, भवि अनुक्रमतें केवल लही । समवसरण विभवो अविकार, पावै तीर्थङ्कर पद सार ||६०६ ॥
जो सन्मान पूर्वक पात्रके लिये दान देता है और अपात्रके लिये जानते हुए कभी नहीं देता है वह पात्रदानके फलस्वरूप स्वर्ग तथा अनुक्रमसे मोक्षको प्राप्त होता है । अपात्रको आहार देनेसे नरकके बहुत भारी दुःख सहन करने पड़ते हैं || ६०१ ॥ यदि कोई दुःखी जन दिखाई देता है, रोगी या अत्यन्त शक्तिहीन जान पड़ता है तो मनमें विशिष्ट करुणाभाव लाकर उसे यथायोग्य भोजन आदि देना चाहिये । यह दया या करुणादान कहलाता है || ६०२ ॥ उत्तम पात्रको आहारदान देनेका फल यह है कि दाता राज्यसंपदाको प्राप्त होता है, नाना प्रकारके भोगोंको प्राप्त होता है अथवा अधिक कहाँ तक कहे ? वह उत्तम जाति और श्रेष्ठ कुलको प्राप्त होता है ।। ६०३ ।। उसका शरीर अत्यन्त नीरोगी होता है, वह दूसरोंकी पीड़ाको दूर करता है और सुन्दर रूपको प्राप्त होता है । यह सब सुपात्रको प्रदत्त औषधदानका फल हैं || ६०४॥ ऐसा जीव दीर्घ आयुको प्राप्त होता है, संसारमें सन्मानको प्राप्त होता है, सुभगतालोकप्रियताको प्राप्त होता है । देव तथा मनुष्य गतिके सुखोंकी तो बात ही क्या ? अभयदानसे यह जीव उसी भवमें मोक्षका पात्र होता है || ६०५ || शास्त्रदान देनेसे भव्यजीव अनुक्रमसे केवल१ या फल पात्रदान आहार न० स० २ मिले स०
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