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क्रियाकोष
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तिम दान अपात्र जु केरो, दुखदायी नरक बसेरो । भोजन उत्तम पातरकौ, दीपक सुर शिवगति घरकौं ॥५९४॥ इह पात्र अपात्र हि दान, भाष्यौ 'दुहुवनको मान । सुखदायक ताहि गहीजै, बुधजन अब ढील न कीजै ॥५९५॥ दुखदायक जांणि अपार, तत खिण तजिए निरधार । फल पात्र अपात्र जु ठीक, इनमैं कछु नांहि अलीक ॥५९६॥ जो धन घरमें बहुतेरो, खरचनको मन है तेरो । तो अंधकूपके मांही, नांखै नहि दोष लहाही ॥५९७॥ दीयौं अपात्रकौं सोई. भव भव दुखदायक होई । सरपहि पकडै नर कोई, काटै वाको अहि वोई ॥५९८॥ इक बार तजै वहि प्राण, वाकौ दुख फेर न जाण । अरु भक्ति अपातर केरी, तातें फिरि है भवफेरी ॥५९९॥ यातें अहि गहिवो नीको, खोटे गुरुतें दुख जीको । तातें खोटो परिहरिये, निति सुगुरु भक्ति उर धरिये ॥६००॥
इसी प्रकार जो दान अपात्रके लिये दिया जाता है उससे दुःखदायक नरकका निवास प्राप्त होता है; और उत्तम पात्रके लिये जो दिया जाता है वह देव गति और सिद्ध गति रूपी घरको प्रकाशित करनेके लिये दीपक होता है अर्थात् उससे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥५९४॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि हमने यहाँ पात्रदान और अपात्रदान-दोनोंका फल बताया है उसमें जो सुखदायक हो, उसे ज्ञानीजन ग्रहण करें, विलम्ब न करें, और जो अपार दुःखदायक मालूम हो उसका निर्धार कर तत्काल त्याग करें। पात्रदान और अपात्रदानका जो फल कहा गया है वह यथार्थ है इसमें मिथ्या कुछ भी नहीं है ॥५९५-५९६।।
हे भव्य ! यदि तेरे घरमें बहुत धन इकट्ठा हुआ है और खर्च करनेका तेरा भाव होता है तो तू उसे अंध कूपमें डाल दे, इसमें दोष नहीं है। परन्तु यदि अपात्रको दिया जायगा तो वह भवभवमें दुःखदायक होगा। यदि कोई मनुष्य सापको पकड़ता है और साप उसे काटता है तो वह एक बार ही मृत्युको प्राप्त होता है, फिर उस दुःखको प्राप्त नहीं होता। परन्तु यदि अपात्रकी भक्ति की जाती है तो उससे बार बार भवभ्रमण होता रहता है। इसलिये सापको पकड़ लेना तो अच्छा है परन्तु खोटे गुरुका आश्रय लेना अच्छा नहीं है। वह जीवको दुःख देनेवाला है इसलिये कुगुरुको छोड़ो और सुगुरुकी भक्तिको हृदयमें धारण करो ॥५९७-६००॥
१ दुहूनको स० दुहुअनको न० २ डारनको स० न० ३ डारे स०
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