SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रियाकोष दोहा तीन दिवस बीतै पछै, लघु बदरी परिमाण । लेय अहार सुखी महा, अरु निहार नहि जाण ॥५४३॥ उत्तम पात्र आहारको, दाता फल अति सार । पावै अचरिज कछु नहीं, अब सुनियो निरधार ॥५४४॥ कृत कारित अनुमोदना, तीनहुँ सम सुख देन । कही भली ताकी कथा, कहूं यथा जिन बैन ॥५४५॥ छप्पय छन्द वज्रजंघ श्रीमती 'सर्प सरवरके ऊपरि, चारण जुगल सुमुनि हि भक्तिजुत दियो असन परि; तहां सिंघ अरु सूर नकुल वानर चहुं जीव हि, करि अनुमोदन बंध लियो सुखयुगल अतीव हि; सुर होइ भुगति नर सुर सुखहि, पुत्र वृषभ तीर्थेशके । हुइ धरि उग्र तप कौं भए सिवतियपति नव वेसके ॥५४६॥ वज्रजंघ नृप आप अवर श्रीमती त्रिया भनी, भोगभूमि कै जुगल भुगति सुरसुखहि विविधनी; बराबर आहार लेते हैं, अत्यन्त सुखी होते हैं और निहार-मलमूत्रकी बाधासे रहित होते हैं ॥५४३॥ उत्तम पात्रको आहार देनेसे दाता अत्यन्त श्रेष्ठ फलको प्राप्त होता है इसमें आश्चर्य नहीं है। अब एक निर्धार निर्णय सुनो । दानके विषयमें कृत, कारित और अनुमोदना-तीनों ही समान फल देते हैं। इसकी जिनागमके अनुसार उत्तम कथा कहता हूँ॥५४४-५४५॥ भगवान आदिनाथके भवान्तरोंकी कथा है। जब वे वज्रजंघकी पर्यायमें थे तब उन्होंने अपनी रानी श्रीमतीके साथ सर्प सरोवरके तटपर चारणऋद्धिके धारक युगल मुनियोंको भक्तिभावसे आहार दिया था। आहार देते समय सिंह, शूकर, नकुल और वानर ये चार जीव भी वहाँ खड़े थे। उन्होंने दानकी अनुमोदना कर भोगभूमिका बन्ध कर लिया। वहाँसे देव होकर पश्चात् मनुष्य और देव होते हुए वे भगवान वृषभदेवके पुत्र हुए और उग्र तप धारण कर मुक्तिवधूके स्वामी हुए ॥५४६॥ राजा वज्रजंघ और उनकी रानी श्रीमती भोगभूमिमें युगल हुए। वहाँके सुख भोग कर देव हुए। पश्चात् मनुष्य और देवोंकी ऋद्धियोंका सुख भोग कर दशवें भवमें राजा वज्रजंघ वृषभदेव तीर्थकर हुए और श्रीमतीका जीव राजा श्रेयांस हुआ जो भगवान वृषभदेवको आहारदान देकर १ साथ क० २ सूकर क० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy