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श्री कवि किशनसिंह विरचित
फुनि दिववासी देव नृपति रिधि भुगती सुखदायक,
दशमैं भव नृप जीव तीर्थङ्कर वृषभ सुखदायक, श्रीमतीय जीव श्रेयांस हुइ, ऋषभनाथको दान दिय । दुहू पात्र दानपति तप विमल करि होय सिद्धसुख अमित लिय ॥५४७॥
दोहा
कृत कारित अनुमोदिकी, कही सुणी हित धारि । अति विशेष इच्छा सुणन, महापुराण मझारि ॥५४८॥ इहां प्रसन कोऊ करै, मिथ्यादृष्टि लोय । बाहिज श्रावक पद क्रिया, कही यथावत होय ॥५४९॥ भावलिंग मुनि तास घरि, 'जुगत आहार क नांहि । सो मुझकू समझाय कहु, जिम संसय मिटि जांहि ॥५५०॥ अथवा श्रावक दृग सहित, किरिया पात्र प्रसार । द्रव्यलिंग मुनिराजकौं, देय क नहीं आहार ॥५५१॥
छन्द चाल ताके मेटन संदेह, अब सुनियै कथन सु एह । जैसें सुनियों जिनवानी, तैसै मैं कहूं वखानी ॥५५२॥ श्रावककी किरिया सार, "मिथ्या तन छांडी लार । चरया बिरियां मुनि राई, एआई जो लेइ घटाई ॥५५३॥
दानपति कहलाया और निर्मल तप कर मोक्षके अपरिमित सुखको प्राप्त हुआ ॥५४७॥ इस प्रकार कृत कारित अनुमोदनाकी जैसी हितकारक कथा मैंने सुनी वैसी कही । यदि विशेष सुननेकी इच्छा हैं तो महापुराणमें देखो ॥५४८॥
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव, बाह्यमें श्रावककी जैसी क्रिया कही है उसका पालन करता है उसके घर भावलिंगी मुनि, योग मिलने पर आहार लेंगे या नहीं? यह बात समझाकर कहिये जिससे मनका संशय दूर हो जावे ॥५४९-५५०॥ अथवा श्रावककी क्रियाका पालन करनेवाला सम्यग्दृष्टि श्रावक द्रव्यलिंगी मुनिको आहार देगा या नहीं? ॥५५१॥ प्रश्नकर्ताके उक्त संशयको दूर करनेके लिये ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रश्नका उत्तर जैसा जिनवाणीमें सुना है वैसा कहता हूँ ॥५५२॥
श्रावककी क्रिया मिथ्यात्वके संपर्कसे रहित होती है इसलिये चर्याके समय जब मुनिराज
१लेत आहार के नांहि क. २ क्रिया पात्र जो सार स. ३ कछु न० स०४ मिथ्याती छोडि लगार स० ५ आये जो ले पडिगाहे स०
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