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श्री कवि किशनसिंह विरचित
प्रथम मिथ्यात भाव मध्य बंध मानवकै, पर्यो पीछें दृग पाय व्रत धरि लियो है । फुनि मुनिराजनिकौ त्रिविध सुविधि जुत,
दोष अंतराय टालि असनजु दियो है । ताहि बंध सेती उतकिष्ट भोगभूमि जाय,
जुगल्या मनुज थाय पुन्य उदै कियो है। तहां आयु पूरी कर देवपद पाय अहो,
मुनिनकौं दान देति ताकौ धनि जियो है ॥५४१॥ सुख उतकिष्ट भोगभूमिके कछुक ओजौं,
कहूं तीन पल्य तहां आयु परमानियै । कोमल सरल चित्त पादप कलप नित्य,
दस परकार नाना विधि भोग दांनियै । जुगल जनम थाय मात पिता खिर जाय,
छींक औ जमाही पाय ऐसी विधि मानियै । निज अंगूठाको सुधारस पान करि दिन, 'इकईस मांझ तनु पूरनता ठांनियै ॥ ५४२॥
यदि किसी मनुष्यने मिथ्यात्व अवस्थामें पहले मनुष्यायुका बंध कर लिया है, पश्चात् सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर व्रतधारी हुआ है; वह यदि किन्हीं मुनिराजको मन वचन काया अथवा कृत कारित अनुमोदनासे विधिपूर्वक दोष और अंतराय टालकर आहार देता है तो वह पूर्वबन्धके अनुसार उत्कृष्ट भोगभूमिमें युगलरूपसे मनुष्य होता है । पुण्योदयसे वहाँकी आयु पूर्णकर देवपद प्राप्त करता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि जो मुनियोंको आहारदान देते हैं उन्हींका जीवन धन्य है ॥ ५४१।।
अब उत्कृष्ट भोगभूमिके सुखोंका कुछ कथन करते हैं । वहाँ तीन पल्यकी आयु होती है। वहाँके मनुष्य कोमल और सरल चित्त वाले होते हैं । दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे नाना प्रकारके सुख भोगते हैं । उनका युगल जन्म होता है, जन्म लेते ही मातापिताका जीवन समाप्त हो जाता है, माताको छींक और पिताको जम्हाई आनेसे उनकी मृत्यु हो जाती है । वहाँकी यही रीति माननी चाहिये। अपने अंगूठेमें संचित अमृत रसका पान कर वे युगल - युगला इक्कीस दिन के भीतर शरीरकी पूर्णताको प्राप्त हो जाते हैं || ५४२ || तीन दिन बीतनेके पश्चात् वे छोटे बेरके
१ उनचास स०
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