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________________ ७८ श्री कवि किशनसिंह विरचित अथवा 'वस्त्रादिक जांणि, धरि ढकि अर आणै प्राणी । वह दूजो दोष गणीजै, तीजो अब भवि सुणि लीजै ॥५०१॥ जे सचित अचित बहु वस्तु, भेलै मिलि जाय समस्तु । जाको लेकै भोगीजै, यह अतीचार गणि लीजै ॥५०२॥ मरयाद भोग उपभोग, कीनो जो वस्तु नियोग । तिहतें जो लेय सिवाय, चौथौ यह दूषण थाय ॥५०३॥ कछु कोरो कछु यक सीजै, अथवा 'दाह्यो गह लीजै । लघु भूख लेई अधिकाई, अति दुखकरि असन पचाई॥५०४॥ दुहु पक्व आहार सु जानी, पंचम अतिचार वखानी । भोगोपभोग व्रत पारी, टालै इनको हित धारी ॥५०५॥ दोहा कथन भोग उपभोगकौ, कियो यथावत सार । आगै अतिथि विभागकौ, सुणियो भवि निरधार ॥५०६॥ चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि-संविभाग व्रतका वर्णन चौपाई प्रथम आहारदान जानिये, दुतिय दान औषध मानिये । तीजो शास्त्रदान है सही, ३अभयदान फुनि चौथो कही ॥५०७॥ सचित्त संबंधाहार नामका दूसरा अतिचार है। अब हे भव्यप्राणियों ! तीसरे अतिचारका वर्णन सुनो ॥४९९-५०१॥ परस्पर मिली हुई सचित्त अचित्त वस्तुओंका सेवन करना सचित्त संमिश्राहार नामका तीसरा अतिचार है। भोगउपभोगकी वस्तुओंकी जितनी मर्यादा की है उससे अधिक ग्रहण करना यह मर्यादातिक्रम* नामका चौथा अतिचार है। कुछ कच्चे, कुछ पक्के और कुछ जले हुए आहारको ग्रहण करना, अथवा भूख कम हो किन्तु अधिक भोजन कर लेना, अथवा जो कष्टसे हजम हो ऐसे गरिष्ठ आहारको लेना दुष्पक्वाहार नामका पाँचवाँ अतिचार है। इस प्रकार भोगोपभोग परिमाण व्रतके पाँच अतिचार कहे। व्रतके धारक मनुष्योंको इन्हें टालना चाहिये ॥५०२-५०५॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि इस तरह भोगोपभोग परिमाण व्रतका यथार्थ वर्णन किया। अब अतिथिसंविभाग व्रतका वर्णन सुनो ॥५०६॥ __प्रथम आहारदान, द्वितीय औषधदान, तृतीय शास्त्रदान और चतुर्थ अभयदान, इस प्रकार दानके चार भेद जानने चाहिये। आहारदान देनेसे अनेक भोगोंकी प्राप्ति होती है। औषधदानसे १ पात्रादिक स० २ वार्यो न० ३ चौवो अभयदान है सही स० * अन्य ग्रन्थोंमें अनेक स्थान पर अमिषवाहार नामका अतिचार माना गया हैं जिसका अर्थ होता है गरिष्ठाहार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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