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________________ क्रियाकोष वस्त्र सकल पहिरनके जिते, निज घरमें आभूषण तिते । रथ वाहन डोली सुखपाल, वृषभ ऊँट हय गय सुविशाल ॥४९४ ॥ वनिता अरु सज्याको साज, भाजन आदिक वस्तु समाज । बार बार 'उपभोगवि जेह, सो उपभोग नहीं संदेह ॥ ४९५॥ तिन दोन्यूंमें सकति प्रमाण, यम वा नियम करै जो जाण । जनम पर्यंत त्याग यम जांणि, वरस मास पखि नियम वखाणी ॥ ४९६ ॥ दिन वा पहर घडी मरयाद, करै सदैव तजै परमाद । किये प्रमाण महाफल सार, विन संख्या फल नहीं लगार ॥४९७|| दोहा सुणहु भोग उपभोगके, अतीचार पण तेह | नहि टाल व्रत पालिहै, विरती श्रावक जेह ॥ ४९८॥ छन्द चाल भेलै सचित्त जो आंही, उपभोग वसन भूषणमैं, एह अतीचार गणि एक, भोगनकी वस्तु जु मांही । कुसुमादिक है दूषणमै ॥ ४९९ || दूजो सुनि धरि सुविवेक । भोजन पातरि परिआवै, अरु सचित थकी ढकि ल्यावै ॥ ५०० ॥ कहते हैं। इनका शास्त्र देख कर निर्धार करना चाहिये ।।४९२-४९३ ।। अपने घरमें पहिननेके जो वस्त्र है, जो आभूषण है, रथ, वाहन, डोली, सुखपाल (मियानो), बैल, ऊँट, घोड़ा, हाथी, स्त्री, शयन करनेकी शय्या तथा बिस्तर आदि सामग्री, और बर्तन आदि जितनी वस्तुएँ हैं वे बार बार भोगनेमें आनेसे उपभोग कहलाती हैं इसमें संदेह नहीं है ।। ४९४-४९५ ।। उन भोग - उपभोगरूप दोनों प्रकारकी वस्तुओंका शक्तिके अनुसार यम अथवा नियमरूप परिमाण करना चाहिये । जन्मपर्यन्तके लिये जो त्याग किया जाता है उसे यम कहते हैं और वर्ष, माह, पक्ष, एक दिन, अथवा प्रहर, घड़ी आदिके लिये जो त्याग किया जाता है उसे नियम कहते हैं। प्रमाद छोड़कर सदा इनका परिमाण करना चाहिये, क्योंकि परिमाण करनेसे महान फलकी प्राप्ति होती है और परिमाणके बिना कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता ।। ४९६-४९७।। आगे भोगोपभोग- परिमाण व्रतके पाँच अतिचार सुनो । इन्हें टालकर व्रती श्रावक व्रतका पालन करते हैं ॥ ४९८ ॥ ७७ भोगकी वस्तुओंमें मिले हुए किसी सचित्त पदार्थका सेवन करना और उपभोगकी वस्त्रआभूषण आदि वस्तुओंमें पुष्पमाला आदि सचित्त वस्तुको धारण करना यह सचित्ताहार नामका पहला अतिचार है । अब विवेक धारण कर दूसरा अतिचार सुनो। जो भोजन सचित्त पत्तल पर परोसा गया है और सचित्त पत्तलसे ढँका हुआ है अथवा वस्त्रादिकसे ढँक कर लाया गया है वह १ भोगिये जेहि स० २ तिनहि स० ३ कुसुमादि गहै न० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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