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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तामैं घटिका दो मांहि, प्राणी निगोदिया थांही । ताकै अघको नहि पार, मिथ्यामत भाव विकार ॥४८८॥
उक्तं च गाथाअन्नजलं किंचिठिई, पच्चक्खाणं न भुंजए भिक्खू । घडी दोय अंतरिया, णिगोइया हुंति बहु जीवा ॥४८९॥
दोहा जो पोसह विधि आदरै, ते सुख पावै धीर । प्रमाद सेवै ते मुगध, किम लहिहैं भवतीर ॥४९०॥ भोगोपभोग परिमाण नामक तृतीय शिक्षाव्रतका कथन
चौपाई व्रत भोगोपभोग जे धरै, दोय प्रकार आखडी करें । यम मरयाद मरण पर्यंत, नियम सकति माफिक धरि संत ॥४९१॥ अन्न पान आदिक तंबोल, अंजन तिलक कुंकुमा रोल । अतर अरगजा तेल फुलेल, ते 'सब वस्तु भोगके खेल ॥४९२॥ एक बार ही आवै काम, बहुरि न दीसै ताकौ नाम ।
ते सब भोग वस्तु जाणिये, ग्रंथ कथन लखि एम माणिये ॥४९३॥ गृहस्थोंके घरसे ले जाकर ऐसे जलको वे संध्या तक रखे रहते हैं। प्रथम तो वह जल कच्चा रहता है फिर अन्नादिकके कण उसमें मिल जाते हैं अतः दो घड़ीके भीतर उसमें निगोदिया (संमूर्छन) जीव उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे पानीको जो पीते हैं उनके पापका पार नहीं है। यह मिथ्यामत भावोंको विकृत करने वाला है ॥४८६-४८८॥
जैसा कि गाथामें कहा है-अन्न मिश्रित जलकी कोई मर्यादा नहीं है, उसका त्याग ही करना चाहिये। साधु ऐसे जलका सेवन न करे क्योंकि उसमें दो घड़ीके भीतर बहुत निगोदिया जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥४८९॥ ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जो इस प्रोषधविधिका आदर करते हैंश्रद्धापूर्वक उसका पालन करते हैं वे धीर वीर पुरुष सुख प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत जो अज्ञानी जन प्रमाद करते हैं वे संसारसागरके तटको कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? ॥४९०॥
आगे भोगोपभोगपरिमाण नामक शिक्षाव्रतका कथन करते हैं
जो भोगोपभोगपरिमाणव्रतको रखते हैं वे दो प्रकारकी प्रतिज्ञा लेते हैं-एक यमरूप और दूसरी नियमरूप। जो मर्यादा मरण पर्यंतके लिये की जाती है वह यम कहलाती है और जो शक्तिके अनुसार कुछ समयके लिये की जाती है उसे नियम कहते हैं ॥४९१॥ अन्न, पानी, तांबूल, अंजन, तिलक, कुंकुम या रोली, इत्र, अरगजा, तेल और फुलैल ये सब वस्तुएँ भोग कहलाती हैं। जो एक ही बार काममें आवे, दूसरी बार जिसका नाम न लिया जाय उसे भोग
१ सहु न०
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