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क्रियाकोष
उत्तम फलकौं जे चाहैं, ते इह विधि नेम निवाहै । उपवास दिवसमें नीर, संकट हू मैं तजि वीर ||४८० ॥ अब सुणहु कथन इक नीको, अति सुखकरि व्रतधर जीको । एकांत दिवसकी सांझ, धरि दुतिय दरव जल मांझ ॥ ४८९ ॥ प्रासुक करि पीवै नीर, तामैं अति दोष गहीर । एकासण जब सु करांही, जल असन लेइ इक ठांही ||४८२ ॥ जिन आगमकी इह रीति, उपरांत चलण विपरीत । जल लेण सांझ ठहरायो, सबही मनि यों ही भायो || ४८३॥
तो दूजो दरव मिलाई, लैणो नहि योग्य कहाही । ताको दूषण इह जाणौ, भोजन दूजा जिम छांणौं || ४८४|| भोजन जिहि बिरियां कीजै, पाणी तब उसन धरीजै । कै प्रासुक पाणी लीजै, कै शक्ति जांणि तजि दीजै ॥४८५ ॥ कुमती ढुंढ्यादिक पापी, जिनमततें उलटी थापी । हांडीको धोवण लेई, चावल धोवै जल लेई ॥ ४८६ ॥ तिणकौं प्रासुक जल भाखै, ले जाय सांझको राखै । इक तो जल काचौ जाणी, अन्नादिक मिली तसु आणी ॥ ४८७॥
जो मनुष्य उत्तम फलको चाहते हैं वे इस नियमका निर्वाह करें कि कितना ही संकट हो फिर भी उपवासके दिन जल ग्रहण न करें ॥४८०॥
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अब एक हितकारी कथन सुनो जो व्रती मनुष्यके हृदयको अतिशय सुखकारी है । कितने ही लोग एकासनके दिन संध्या समय जलमें काजू, किसमिस या बादाम, दो तीन पदार्थ मिला कर तथा उसे प्रासुक कर पीते हैं सो इसमें बहुत भारी दोष है । जिनागममें तो यह रीति बतलाई है कि जब एकासन करे तब एक ही स्थान पर बैठकर भोजन पानी ग्रहण करना चाहिये, इसके उपरांत प्रवृत्ति करना विपरीत है । संध्या समय जल लेना यह यदि सबको रुचिकर है तो उसमें दूसरे पदार्थ मिलाकर लेना सर्वथा योग्य नहीं है । उसके लेनेमें दोष यह है कि वह दूसरा भोजन होगा और उससे एकासन व्रत खण्डित हो जायेगा ||४८१-४८४ ।। जिस समय भोजन करे उस समय गर्म पानी लेना चाहिये । संध्याके समय यदि पानी लेनेकी आवश्यकता हो तो मात्र गर्म पानी लेना चाहिये अथवा शक्ति हो तो बिलकुल ही त्याग कर देना चाहिये ॥ ४८५ ॥
मिथ्यामती पापी दूढिया आदिकने जिनमतमें विपरीत रीति चला दी है । वे हंड़ी धोने के जलको अथवा चावल धोनेके जलको लेते हैं । ऐसे ही जलको वे प्रासुक जल कहते हैं ।
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