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________________ ७४ श्री कवि किशनसिंह विरचित फल लहे यथारथ सोई, यामें कछु फेर न जोई । प्रोषध व्रतकी इह लीक, माफिक जिन आगम ठीक ॥४७२॥ अरु सकलकीर्तिकृत सार, ग्रंथ हु श्रावक आचार । ता माहै भाष्यो ऐसें, सुणिये ग्याता विधि जैसें ॥४७३॥ उपवास दिवस तजि वीर, छाण्यो सचित्त जो नीर । लेते दूषण बहु थाई, उपवास वृथा सो जाई॥४७४॥ पीवै सो पासुक करिकैं, दुतियो जु दरव मधि धरिकैं। वैहू विरथा उपवास, लेणो नहि भविजन तास ॥४७५॥ अरु सकतिहीन जो थाई, जलतें तन कै थिरताई । तो अधिक उसन इम वीर, विन हुकम किये जो नीर ॥४७६॥ अन्नादिक भाजन केरो, दूषण नहि लागै अनेरो । ऐसो आवै जे पाणी, ताकी विधि एक वखाणी ॥४७७॥ उपवास आठमो वांटो, 'वहि है इम जाणि निराटो । इनमें आछी विधि जाणी, करियै सो भविजन प्राणी ॥४७८॥ संसो मनि इहै न कीजै, प्रोषधमें कबहु न लीजै । पोसह विन जो उपवासै, तामैं ऐसी विधि भासै ॥४७९॥ इसमें अंतर नहीं है। प्रोषधव्रतकी यह विधि जिनागमके अनुसार कही है ॥४७१-४७२॥ अब सकलकीर्ति आचार्य द्वारा विरचित श्रावकाचारमें जैसी विधि कही है उसे हे ज्ञानीजनों ! सुनो ॥४७३। जो मनुष्य उपवासके दिन अपनी शक्ति छोड़कर छाना हुआ सचित्त पानी लेते हैं उसमें बहुत दोष लगता है, उसका उपवास व्यर्थ हो जाता है; इसलिये जल प्रासुक करके पीना चाहिये। उस पानीमें सोंफ या काली मिर्च आदि दूसरे पदार्थ मिलाकर पीते हैं उनका भी उपवास व्यर्थ होता है इसलिये हे भव्यजनों ! ऐसा पानी लेना योग्य नहीं है। यदि शक्ति क्षीण हो गई हो और जलसे शरीरमें स्थिरता आती हो तो अपनी आज्ञाके बिना जो गर्म किया गया हो और अन्नादिकके पात्र अर्थात् सकराका दोष जिसमें न हो ऐसा पानी आवे तो उसके लेनेकी विधि कही गई है ॥४७३-४७७॥ उपवासमें जो उपहार आदि बाँटते हैं वह भी ठीक नहीं है। इनमें जो अच्छी विधि हो उसे ही भव्य प्राणियोंको करना चाहिये ॥४७८॥ इसमें मन संशयपूर्ण नहीं करना चाहिये। प्रोषधव्रतमें इसे नहीं करना चाहिये किन्तु प्रोषधके दिन जो उपवास किया हो उसमें उपहार आदि बाँटनेकी विधि होती है ॥४७९॥ १. घटि है न० स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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