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________________ __७९ क्रियाकोष लहै आहार थकी बहु भोग, औषधतें तनु होय निरोग । अभय थकी निरभय पद पाय, शास्त्रदानतें ज्ञानी थाय ॥५०८॥ अब पातरको सुणहु विचार, जैसो जिन आगम विस्तार । पात्र कुपात्र अपात्र हि जाण, दीजै जिम तिम करहुं वखाण ॥५०९॥ पात्र प्रकार तीन जांनिये, उत्तम मध्यम जघन्य मांनिये । मुनिवर श्रावक दरसण धार, कहै सुपात्र तीन विधि सार ॥५१०।। तीन तीन तिहुं भेद प्रमाण, सुणहु विवेकी तास वखाण । उत्तममें उत्तम तीर्थेश, उत्तममें मध्यम हैं गणेश ॥५११॥ मुनि सामान्य अवर है जिते, उत्तम मध्यम जघन्य है तिते । मध्यम पात्र तीन परकार, तिहिमांहे उत्तम 'सुनि सार ॥५१२॥ क्षुल्लक एलक दुहुँ ब्रह्मचार, अरु दसमी प्रतिमा व्रत धार । मध्यममांहि उत्तम ए जाण, मध्यममांहि मध्यम कहुं वखाण ॥५१३॥ सात आठ नव प्रतिमा धार, मध्यममें मध्यम पातर सार । पहिलीतें षष्ठी पर्यंत, मध्यममें जघन्य भणि सन्त ॥५१४॥ दरसनधारी जघन्य मझार, उत्तम क्षायिक समकित धार । क्षयोपशमी मध्यम गनि लेहु, जघन्य उपशमी जानौ एहु॥५१५॥ शरीर नीरोगी रहता है। अभयदानसे निर्भय पद प्राप्त होता है और शास्त्रदानसे मनुष्य ज्ञानी होता है ॥५०७-५०८॥ अब पात्रका विचार सुनो जैसा कि जिनागममें विस्तारसे कहा गया है। पात्र, कुपात्र और अपात्र ये तीन प्रकारके पुरुष हैं उनमें जिन्हें आहार दिया जाता है उनका व्याख्यान करते हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे पात्र तीन प्रकारके जानने चाहिये। उत्तम पात्र मुनिराज, मध्यम पात्र श्रावक और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि हैं। ये तीनों सुपात्र हैं ॥५०९-५१०॥ इन तीनों सुपात्रोंके उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन तीन भेद जानने चाहिये। हे विवेकीजनों ! इन भेदोंका व्याख्यान सुनो। उत्तममें उत्तम पात्र तीर्थङ्कर है, उत्तममें मध्यम पात्र गणधर है और इनके सिवाय जितने अन्य मुनि हैं वे उत्तममें जघन्य पात्र हैं। मध्यम पात्र भी तीन प्रकारके हैं उनमें एलक क्षुल्लक तथा दशम प्रतिमाधारी मध्यममें उत्तम पात्र हैं, सातवीं, आठवीं और नवमी प्रतिमाके धारी मध्यममें मध्यम पात्र हैं तथा पहलीसे छठवीं प्रतिमा तकके श्रावक मध्यममें जघन्य पात्र कहलाते हैं ॥५११-५१४॥ अविरत सम्यग्दृष्टियोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि उत्तम पात्र हैं, क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मध्यम पात्र हैं और औपशमिक सम्यग्दृष्टि १ अब पात्रदानको सुनहु विचार स. २ व्रत धार स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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