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लिए अलग से सूत्रों की रचना करनी पड़ती है। जबकि लौकिक व्यवहार के शब्द होने के कारण व अन्वर्थ होने के कारण हैमव्याकरण में वर्तमान, ह्यस्तनी आदि शब्दों को परिभाषित करना आवश्यक नहीं होता।
धातुरूपों की निष्पत्ति-प्रक्रिया के सम्बन्ध में हेमचन्द्र की एक अन्य विशेषता भी है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में प्रथमतः दस लकारों का विधान किया है तथा बाद में उनके स्थान पर तिप्, तस् आदि १८ आदेशों का विधान किया है। इन १८ आदेशों में से प्रथम ९ आदेश परस्मैपदी धातुओं के साथ तथा बाद के ९ आदेश आत्मनेपदी धातुओं के साथ जुड़ते हैं। प्रत्येक लकार में तिप् आदि प्रत्ययों का स्वरूप परिवर्तित होता चला जाता है। पाणिनि को भिन्न-भिन्न लकारों में घटित होने वाले इन परिवर्तनों की व्यवस्था के लिए भित्र-भिन्न सूत्रों की रचना करनी पड़ती है। आचार्य हेमचन्द्र ने इस लम्बी तथा जटिल प्रक्रिया से बचने के लिए वर्तमान आदि प्रत्येक लकार के स्थान में भिन्न-भिन्न १८ प्रत्ययों का विधान किया। इस तरह वे पाणिनि के दस लकारों के स्थान में १८० प्रत्ययों की व्यवस्था करते हैं। वर्तमान आदि में विहित प्रत्येक १८ प्रत्ययों में आदि के ९ को परस्मैपद और शेष ९ को आत्मनेपद नाम दिया गया है।
हेमचन्द्र ने शतृ और क्वसु प्रत्ययों को परस्मैपदी धातुओं के साथ जोड़ने का विधान किया है। उन्होंने धातुओं से आत्मनेपदी और परस्मैपदी प्रत्ययों की व्यवस्था के लिए पाणिनि की पद्धति का ही अनुसरण किया है। नौ गणों की धातुओं से, यदि वे इदित् व नित् हैं तो अथवा यदि क्रिया का फल कर्ता को मिल रहा है तो आत्मनेपदी धातुओं का विधान किया गया है। इगित् धातुओं से आत्मनेपदी तथा परस्मैपदी दोनों प्रत्यय आते है। ऐसी धातुओं को हेमचन्द्र ने उभयपदी कहा है। पाणिनि के समान ही हेमचन्द्र का नियमन है कि जो धातुएँ उक्त दो प्रकार की धातुओं से भिन्न हैं, उनसे परस्मैपदी प्रत्यय हों। पाणिनिव्याकरण के समान ही हैमव्याकरण में भी धातुरूपों की निष्पत्ति-प्रक्रिया में विकरणों की व्यवस्था की गई है। इन विकरणों से काल, वाच्य आदि का प्रतिपादन होता है। पाणिनि के शप् के स्थान पर हेमचन्द्र ने शव् प्रत्यय का विधान किया है। इस प्रत्यय का विधान धातुसामान्य से किया गया है।
अदादिगण की धातुओं से शव् विकरण नहीं होता है। दिवादि धातुओं से श्य, स्वादि धातुओं से श्नु, तुदादि धातुओं से श, रुदादि धातुओं से श्ना, तनादि धातुओं से उ, क्रियादि धातुओं से श्नम् तथा चुरादिगणपठित धातुओं से णिच् प्रत्यय का विधान किया गया है। इन प्रत्ययों को पारिभाषिक शब्द में विकरण कहा जाता है। इन विकरणों में स्थित अनुबन्धों के गुण आदि प्रयोजन हैं। प्रेरणा अर्थ में संस्कृत की सभी धातुओं का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। पाणिनिविहित णिच् के स्थान पर हेमचन्द्र ने प्रेरणा अर्थ में धातुमात्र से णिग् प्रत्यय का विधान किया है। णिग् प्रत्यय का णित्-करण धातुओं में अ, ई और उ वर्गों में वृद्धि के निमित्त किया गया है। प्रत्यय का गित्-करण यह प्रतिपादित करने के लिए है कि णिजन्त धातुओं का प्रयोग आत्मनेपदी तथा परस्मैपदी दोनों ही धातुओं में किया जा सकता है। जब णिजन्त धातुओं से परस्मैपदी प्रत्यय जोड़े जाते हैं तो धातु सकर्मक होगा। णिजन्त धातुओं का प्रयोग सभी कालों तथा लकारों में होता है। इच्छा के अर्थ में पाणिनि के समान हेमचन्द्र आचार्य भी सन् प्रत्यय का विधान करते हैं। और सन् प्रत्यय की स्थिति में धातु को द्वित्व हो जाता है। शुद्ध कर्तृप्रक्रिया के समान सनन्त धातुओं से भी पूर्वोक्त विकरण हो जाते हैं।
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