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पार्श्वनाथ का संसार-त्याग
६१ করুনৰুকৰুৰুষৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুণৰুৰুৰুকৰুৰুকনৰুৰুৰুৰুৰুককককককককককক্ষন
जाय, परन्तु जब तक वास्तविक धर्मतत्त्व को हृदय में स्थान नहीं मिलता, तब तक ऐसे निर्दय अनुष्ठान से आत्म-हित नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता।"
" राजकुमार ! तुम्हारा काम क्रीड़ा करने का है। हाथी-घोड़े पर सवार हो कर मनोविनोद करना तुम जानते हो । धर्म का ज्ञान तुम्हें नहीं हो सकता । धर्मतत्त्व को समझने-समझाने का काम हम धर्मगुरुओं का है, तुम्हारा नहीं। हमारे काम में हस्तक्षेप मत करो । यदि तुम्हें मेरी तपस्या में कोई पाप या हिंसा दिखाई देती हो, तो बताओ । अन्यथा अपने रास्ते लगो"-अपने अधिकार एवं प्रभाव में अचानक विघ्न उत्पन्न हआ देख कर सपस्वी बोला।
कुमार ने अनुचर को आदेश दिया--
" इस अग्निकुंड का वह काष्ठ बाहर निकालो और इस ओर से उसे सावधानी से चीरो।
सेवक ने तत्काल आज्ञा का पालन किया। लकड़े को चीरते ही उसमें से जलता हुआ एक नाग निकला। पीड़ा से तड़पते हुए सर्प को नमस्कार मन्त्र सुनाने का सेवक को आदेश दिया। सेवक ने उस सर्प के पास बैठ कर नमस्कार मन्त्र सुनाया और पाप का प्रत्याख्यान करवाया। प्रभु के प्रभाव से नमस्कार मन्त्र सुनते ही नाग की आत्मा में समाधिभाव उत्पन्न हुआ। वह आर्स-रौद्र ध्यान से बच गया और धर्मध्यानयुक्त आयु पूर्ण कर के भवनपति के नागकुमार जाति के इन्द्र 'धरणेन्द्रपने' उत्पन्न हुआ।
जलते हुए काष्ठ में से सर्प निकलने और उसे धर्म का अवलम्बन देते देख कर, उपस्थित जनता की श्रद्धा तापस पर से हट गई और जनता अपने प्रिय राजकुमार का जयजयकार करने लगी। पार्श्वकुमार वहाँ से लौट कर स्वस्थान आये ।
तपस्वीराज कमठजी का मानभंग हो गया। वह आवेश में आ कर अति उग्र तप करने लगा। वह मिथ्यात्वयुक्त तप करता हुआ मर कर भवनवासी देवों की मेघकुमार निकाय में · मेघमाली' नाम का देव हुआ ।
पार्श्वनाथ का संसार-त्याग
भोगोदय के कर्मफल भीण होने पर श्री पार्श्वनाथजी के मन में संसार के प्रति विरक्ति अधिक बढ़ी । भगवान् ने वर्षीदान दिया। तत्पश्चात् लोकान्तिक देवों ने अपने आचार के अनुसार भगवान के निकट आ कर प्रार्थना की--
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