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________________ ब्रह्मदत्त का दीर्घ के साथ युद्ध और विजय सभी राजाओं की सहायता से ब्रह्मदत्त ने सेना सज्ज की। अपने मित्र बरधनु को सेनापति बनाया । दीर्घ को इस हलचल का पता लग चुका था। उसने कटक नरेश के पास अपना शंख नामक दूत भेज कर मैत्री-सम्बध का स्मरण दिलाते हुए ब्रह्मदत्त को सौंपने की मांग की । कटक नरेश ने दूत से कहा-- “दीर्घ से कहना कि हम पाँच मित्र थे । ब्रह्म राजा के देहावसान के बाद उनके राज्य और पुत्र की रक्षा करने का भार हम चारों पर था । दीर्घ राजा ने रक्षक बन कर भक्षक का काम किया। ऐसा तो नीच से नीच मनुष्य भी नहीं करता । सौंपी हुई वस्तु को तो साँप और डाकू भी नहीं दबाता। उनका कर्तव्य था कि वे राज्य की रक्षा करते और वय-प्राप्त उत्तराधिकारी को उसकी धरोहर सौंप कर, वहाँ से हट जाते। किन्तु उन्होंने सारा राज्य दबा लिया और उत्तराधिकारी को मारने का प्रयत्न करते रहे । अब भलाई इसी में है कि वे राज्य छोड़ कर चले जायँ । अन्यथा रणक्षेत्र में ही इसका निर्णय होगा।" ब्रह्मदत्त सेना ले कर चला और क्रमशः कम्पिलपुर की सीमा तक पहुँचा। उधर दीर्घ भी सेना ले कर आ पहुँचा । दोनों सेना भिड़ गई। ब्रह्मदत्त की सेना के भीषण प्रहार के सामने दीर्घ की सेना टिक नहीं सकी और इधर-उधर बिखर गई। अपनी सेना की दुर्दशा देख कर दीर्घ स्वयं आगे आया और शौर्यपूर्वक लड़ने लगा। दीर्घ राजा के भयंकर प्रहार के आगे ब्रह्मदत्त की सेना भी टिक नहीं सकी और बिखर गई । अपनी सेना को पीछे हटती हुई देख कर, ब्रह्मदत्त आगे आया और स्वयं दीर्घ से भिड़ गया । दनों वीर बलवान् थे । वे शत्रु का वार व्यर्थ करते हुए घातक प्रहार करने लगे। उसी समय ब्रह्मदत्त के पुण्य-प्रभाव से अचानक चक्ररत्न उसके निकट प्रकट हुआ। चक्ररत्न की कान्ति से दशोदिशाएँ प्रकाशित हो गई । ब्रह्मदत्त ने चक्ररत्न को ग्रहण किया और घुमा कर दीर्घ पर फेंका । चक्र के प्रहार से दीर्घ का मस्तक कट कर गिर पड़ा। ब्रह्मदत्त की जय-विजय हुई । वह बड़े समारोहपूर्वक कम्पिलपुर में प्रविष्ट हुआ। राज्य पर अधिकार किया। इस समय उसकी वय अठाईस वर्ष की थी। राज्य पर अधिकार करते ही उसने विभिन्न स्थानों पर रही हुई रानी बन्धुमती,, पुष्पवती, श्रीकान्ता, खण्डा, विशाखा, रत्नावती, पुण्यमानी, श्रीमती और कटकवती को अपने पास बुलवा लिया और सुखपूर्वक रहने लगा। छप्पन वर्ष तक वह मांडलिक राजा रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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