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________________ ब्रह्मदत्त का कौशांबी से प्रयाण और लग्न इधर ब्रह्मदत्त रत्नावती के मोहक विचारों में लौन था, उधर उसके शत्र दीर्घ के सुभट, कौशांबी नरेश के पास पहुँचे और ब्रह्मदत्त को पकड़वाने का निवेदन किया। कौशाम्बी नरेश की आज्ञा से ब्रह्मदत्त की खोज होने लगी । सेठ सागरदत्त को इसकी सूचना मिली । उसने तत्काल दोनों मित्रों को तलघर में पहुँचा कर छुपा दिया। किन्तु दोनों मित्रों की इच्छा वहाँ से निकल कर अन्यत्र जाने की थी। वे यहाँ छुप कर रहना नहीं चाहते थे और छुपा रहना कठिन भी था । वे रात्रि के अन्धकार में वहाँ से निकले। सागरदत्त ने अपना रथ और शस्त्रादि उन्हें दिये और स्वयं रथारूढ़ हो कर उन्हें पहुँचाने बहुत दूर तक गया। दोनों मित्र आगे बढ़े। उन्हें उद्यान में एक सुन्दर युवती दिखाई दी। दोनों मित्रों को देखते ही युवती बोली--" आपने इतना विलम्ब क्यों किया ? मैं बहुत देर से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ।" --"देवी आप कौन हैं ? आप हमें कैसे जानती हैं ? हम तो आपको जानते ही नहीं । आपने हमें पहिचानने में भूल तो नहीं को"--विस्मयपूर्वक ब्रह्मदत्त ने पूछा। --"इस नगर के धनप्रभव सेठ की मैं पुत्री हूँ और आठ बन्धुओं की सब से छोटी एक मात्र बहिन हूँ । 'रत्नावती' मेरा नाम है । वयप्राप्त होने पर स्त्री-स्वभावानुसार मेरे मन में भी योग्य पति की कामना जाग्रत हुई । मैने इस उद्यान में रहे हुए यक्ष देव की आराधना की । भक्ति से संतुष्ट एवं प्रसन्न हुए देव ने प्रकट हो कर मुझे कहा--'ब्रह्मदत्त नाम का चक्रवर्ती नरेश तेरा पति होगा । जो व्यक्ति सागरदत्त और बुद्धिल के मध्य होने वाले कुर्कुट-युद्ध में, अपने बुद्धि बल से यथार्थ निर्णय करवावे, वह अपरिचित युवक ही ब्रह्मदत्त होगा। उसके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह होगा और वह अपने मित्र के साथ होगा । इस पर से तू उन पहिचान लेना । किन्तु तेरा उससे मिलाप तो मेरे इस मन्दिर में ही होगा।" देव के इन वचनों के अनुसार मैने आपको कुकुट-युद्ध के समय देखा । मैने ही आपके पास माला भेजी थी और प्रतीक्षा कर रही थी। आपकी हलचल की जानकारी मुझे मिल रही थी। आपको पकड़ने की राजाज्ञा और खोज भी मुझे ज्ञात हो गई थी। मैं समझ गई थी कि अब आप यह नगर छोड़ देंगे। इसलिये यहाँ आ कर आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। अब मुझ स्वीकार कर के मेरे मनोरथ को सफल कीजिये।" ब्रह्मदत्त ने उसे स्वीकार किया और हाथ पकड़ कर रथ में बिठाई । उसने पूछा"प्रिये ! मैं इस प्रदेश से अपरिचित हूँ। अब तुम ही बताओ किधर चलें ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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