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________________ कौशाम्बी में कुर्कुट-युद्ध $$$$$$$ ••••• 44နန်န၀၄ က နေ बुद्धिल का मुर्गा वैसा नहीं था । कुछ समय दोनों मित्र इस कुकूट-युद्ध को देखते रहे । मागरदत्त का कुर्कुट हार गया । ब्रह्मदत्त को अच्छे कुर्कुट के हारने पर आश्चर्य हुआ। ब्रह्मदत्त को तीक्ष्ण दृष्टि बुद्धिल की चालाकी भांप गई । उसने अपने कुकड़े के पांवों में लोहे की तीक्ष्ण सूइयाँ चुभा कर गड़ा दी थी। उस की वेदना से वह अपना पाँव ठीक तरह से भूमि पर टीका नहीं सकता था और क्रुद्ध हो कर लड़ता ही जाता था। बुद्धिल ब्रह्म दत्त की दृष्टि भाँप गया, उसे सन्देह हो गया कि यह मनुष्य मेरा भेद खोल देगा। उसने गुप्त रूप से ब्रह्मदत्त को पचास हजार द्रव्य ले कर रहस्य प्रकट नहीं करने का आग्रह किया। परन्तु ब्रह्मदत्त ने स्वीकार नहीं किया और उसका भाँडा जनता के सामने फोड़ दिया । तत्काल कुर्कुट के पाँवों में से सुइयाँ निकाली गई। उसके बाद दोनों पक्षियों का फिर युद्ध हुआ और थोड़ी ही देर में सागरदत्त के कुर्कुट ने बुद्धिल के कुर्कुट को पराजित कर दिया । ब्रह्मदत्त की चतुराई से हारी हुई बाजी जीतने के कारण सेठ सागरदत्त, ब्रह्मदत्त पर प्रसन्न हुआ। वह दोनों मित्रों को अपने रथ में बिठा कर घर ले गया। दोनों मित्र सागरदत्त के घर प्रेमपूर्वक रहने लगे। उनमें मित्रता का सम्बन्ध हो गया। एक दिन बुद्धिल के सेवक ने आ कर वरधनु से कहा--"मेरे स्वामी ने आपको पचास हजार द्रव्य देने का कहा था, वह लीजिये। मैं लाया हूँ।" इतना कहकर उसने एक मुक्ताहार उसे दिया। उस हार में ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था । ब्रह्मदत्त ने देखा । वह उसे पढ़ने लगा कि इतने में 'वत्सा' नाम की एक वृद्धा वहाँ आई । उसने दोनों मित्रों को आशीर्वाद देते हुए उनके मस्तक पर अक्षत डाले, फिर वरधनु को एक ओर ले जा कर धीरे से कुछ बात कही और चली गई । वरधनु ने ब्रह्मदत्त से कहा-- "वह वृद्धा यहाँ के नगर सेठ बुद्धिल की पुत्री रत्नावती का सन्देश ले कर आई थी। पहले जो हार और पत्र आया, वह भी उसी का भेजा हुआ है । उसने कुर्कुट-युद्ध के समय आपको देखा और मोहित हो गई । युवती रति के समान अत्यन्त सुन्दर है और आपके विरह में तड़प रही है । मैने उसके पत्र का उत्तर आपके नाम से लिख कर उसे दे दिया है। वरधनु की बात सुन कर ब्रह्मदत्त भी काम के ताप से पीड़ित हो कर तड़पने लगा। उस समय वह अपना विपत्ति-काल भी भूल गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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