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________________ दरिद्र मेडुक दर्दुर देव हुआ ၆၀၆၉၆၉၀၀၀ •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• एक द्रह मिला । वृक्षों पर से गिरे हुए पत्रों, पुष्पों और फलों से और सूर्य के ताप से उस द्रह का जल, क्वाथ के समान औषध वाला हो गया। सेडुक ने उस जल को पेट भर कर पिया । वह जल उसके लिये औषधी रूप हो गया। उसके शरीर में रहे हुए कृमि रेच के साथ निकले। सेडुक समझ गया कि यह जल और यहाँ के फल मिट्टी मेरे लिए आरोग्यप्रद हैं । वह कुछ दिन वहां रहा और वहीं के जल-फलादि सेवन कर स्वस्थ हो गया। उसमें शक्ति का संचार भी हो गया। वह प्रसन्न होता हुआ कौशांबी आया। उसे स्वस्थ और सकुशल आया जान कर लोक चकित रह गए। उससे स्वास्थ्य-लाभ का कारण पूछा, तो बोला--" मैने देव की आराधना की है, उसके फलस्वरूप मुझे आरोग्य लाभ हुआ है।" लोगों ने कहा--"तुम्हारा सारा परिवार भी कोढ़ी हो गया है। उन्हें भी स्वस्थ वना दो।" --"नहीं, उन्होंने मुझ-से घणा की। मेरा अपमान किया । मैं इस अपमान की आग में जलता था। इसलिए मैने ही कोढ़ी-पशु खिला कर उन में रोग उत्पन्न किया है। वे सब अपने पाप का फल भोगते रहें"--सेडुक ने कहा; -- ___ लोग सेडुक को 'क्रूर निर्दय' आदि कह कर निन्दा करने लगे। उससे पुत्रादि भी उसे गालियाँ देने लगे, तो वह वहाँ से निकल कर राजगृह आया। वहाँ आजीविका के लिए भटकते हुए वह तुम्हारे भवन के द्वारपाल के निकट आया। द्वारपाल ने उसे आश्वासन दिया। उस समय मैं यहाँ आया था। द्वारपाल मेरा धर्मोपदेश सुनने के लिये आना चाहता था। उसने सेडुक को अपने प्रहरी के स्थान पर बिठाया और मेरा धर्मोपदेश सुनने आया। दुर्गदेवी के सम्मुख बलिदान रखा हुआ था। भूख सेडुक का मन ललचाया, तो उसने भरपेट खापा, परन्तु पानी वहाँ नहीं था और वह पहरा छोड़ कर जा नहीं सकता था, ऊपर से ग्रीष्म-ऋतु की उष्णता का प्रकोप। वह पानी का चाह लिये मरा और नगरी के बाहर वापिका में मेंढ़क हुआ । कालान्तर में मैं विहार करता हुआ फिर यहाँ आया। लोगों में मेरे आने की चर्चा हुई । वापिका में आने-जाने वालों के मुंह से मेरे आगमन की चर्चा उस मेंढक ने भी सुनी। उसने परिचित नाम आदि पर ध्यान दिया । क्षयोपशम बढ़ते ज तिस्मरण उत्पन्न हुआ। पूर्व-भव जान कर यह भी मुझे वन्दन करने बावड़ो से बाहर निकला और मेरी ओर आने लगा। तुम भी मुझे वन्दना करने अश्वारूढ़ हो कर इसी ओर आ रहे थे। तुम्हारे अश्व के पाँव से कुचन कर मेंढ़क घायल हो गया और भक्तिपूर्ण हृदय से काल कर वह मेंढ़क ‘दर्दुरांक ' देव हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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