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________________ ३४४ एककककककककककककककककक तीर्थकर चरित्र - भाग ३ ककककककककककककककककककककककककककककक करनी चाहिए | उसने कहा--" आप तो प्रतिदिन भोजन और दक्षिणा में एक स्वर्ण मुद्रा माँग लीजिए । बस, इतना ही पर्याप्त होगा ।" सड़क ने यही माँगा और उसे मिल गया । उसे भोजन और दक्षिणा मिलने लगी । राजा की कृपा से नगरी में भी उसका सम्मान बढ़ा और सेडुक के द्वारा राजा से स्वार्थलाभ की इच्छा रखने वाले नागरिक भी उसे न्योता दे कर भोजन और दक्षिणा देने लगे । दक्षिणा के लोभ से, भोजन कर लेने के उपरांत -- भूख नहीं होते हुए भी -- सेडुक वमन कर के पूर्व किया हुआ भोजन निकाल कर नये निमन्त्रण का भोजन करने लगा । पुत्रपोत्रादि परिवार से भी वह बढ़ गया था और धन की भी वृद्धि हो गई थी । भोजन, वमन और भोजन । अजीर्ण - बिना पचा हुआ भोजन निकाल देने से (आम-- अपक्व रस ऊँचा जाने से ) त्वचा दूषित हुई । वह रोग का घर हो गया। वह कोढ़ी हो गया । उसके हाथ-पाँव आदि सड़ गए। इतना होते हुए भी राज्य की भोजनशाला में जा कर भोजन करता । एक बार मन्त्री ने राजा से कहा--" इस कोढिये की स्पर्श की हुई वायु से भी स्वस्थ मनुष्य को बचना चाहिये । इसलिये अब इसका यहाँ आना उचित एवं हितकर नहीं हो सकता । इसके बदले इसके किसी पुत्र को भोजन कराना चाहिये ।" राजा ने मन्त्री की बात मान कर सेडुक का प्रवेश रोक दिया। सेडुक के दुर्भाग्य का उदय हुआ । पुत्रों ने भी अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए उसे घर से निकाल दिया और पृथक् एक झोंपड़ी में रखा। उसके पुत्र पुत्रवधुएँ आदि उससे घृणा पूर्वक व्यवहार करने लगे। सेक अपने परिवार पर रुष्ट हुआ । उसने सोचा--" मेरे ही संग्रह किये धन पर ये लोग सुख भोग रहे हैं और मुझ से ही घृणा करते हैं । मैं यह सहन नहीं कर सकता ।" उसने परिवार से वैर लेने का निश्चय किया और अपने पुत्रों से कहा; -- " मैं इस जीवन से ऊब गया हूँ और मृत्यु की कामना अपने कुल की रीति के अनुसार एक मन्त्रवामित पशु मुझे अपने लिये देना है, जिससे कुलदेव प्रसन्न हों और परिवार सुखी रहे ।" Jain Education International पुत्रों ने उसे पशु दे दिया । सेडुक ने प्राप्त अन्न को अपनो कोढ़ से झरे हुए पोंव में मिला कर पशु को खिलाया। इससे पशु में भी कढ़ उत्पन्न हो गया । उस पशु की मार कर पुत्रों को दिया । पुत्रों ने उसे खाया । उससे उनमें भी रोग उत्पन्न हो गया । सेडुक तीर्थ-यात्रा के बहाने वन में चला गया । वन में भटकते उसे प्यास लगी । अत्यन तृषातुर हो वह पानी के लिए भटकने लगा । उसे सघन वन में वृक्षों से घिरा हुआ करता हूँ | मरने से पू परिवार को प्रसाद के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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