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तीर्थङ्कर चरित्र भाग ३
महाशतक श्रावक भी चौदह वर्ष के बाद अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहभार सोंप कर पौषधशाला में गया और प्रतिमा का पालन करने लगा।
कामासक्त रेवती, पति के पास पौषधशाला में पहुंची और मोह एवं मदिरा की मादकता में डोलती हुई बोली--
__ "ओ धर्मात्मा ! आप धर्म और पुण्य लाभ के लिये यहाँ आ कर साधना कर रहे हो, परन्तु इससे क्या पाओगे ? सुख ही के लिए धर्म करते हो न ? जो सुख मैं आपको दे रही हूँ, उस प्रत्यक्ष प्रस्तुत सुख से बढ़ कर अधिक क्या पा सकोगे--इस कष्ट-क्रिया से ? चलो उठो । मैं आप को समस्त सुख अर्पण कर रही हूँ।"
उसने दो-तीन बार कहा. परन्तु साधक अपनी साधना में लीन रहे। उन्होंने रेवती की ओर देखा ही नहीं। वह निराश होकर लोट गई।
__ महाशतक श्रमणोपासक ने आनन्द के समान ग्यारह प्रतिमाओं का पालन किया। जब तपस्या से शरीर जर्जर हो गया, तो उसने भी आमरणान्त संथारा कर लिया । शुभ ध्यान में रत होने से उसके अवधिज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ और उसे अधिज्ञान उत्पन्न हो गया। वह लवण-समुद्र में चारों दिशाओं में एक-एक हजार योजन तक देखने लगा । शेष आनन्दवत् ।
श्रमणापासक महाशतक संथारा किये हुए धर्म-ध्यान में रत था कि रेवती पुनः कामोन्माद युक्त होकर उसके निकट आई और भोग प्रार्थना करने लगी । महाशतक उसकी दुष्टता से क्रोधित हो गया। उसने अवधिज्ञान का उपयोग कर रेवती का भविष्य जाना और बोला--
" रेवता ! तू स्वयं अपना ही अनिष्ट कर रही है। अब तू सात रात्रि में ही रोगग्रस्त एवं शोकाकुल होकर मर जायगी और प्रथम नरक के लोलुपाच्युत नरकावास में, चोरासी हजार वर्ष तक महादुःख भोगती रहेगी।"
__रेवती समझ गई कि पति मुझ पर रुष्ट है । अब यह मुझ-से स्नेह नहीं करता। कदाचित् यह मुझ बुरी मौत से मार डालेगा। वह डरी और लौट कर अपने आवास में चली गई। उसके शरीर में रोग उत्पन्न हुए और वह दुर्ध्यान में ही मर कर प्रथम नरक में, चौरासी हजार वर्ष की स्थिति में उत्पन्न हो कर दुःख भोगने लगी।
उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामो राजगृह पधारे। भगवान् ने गौतमस्वामी को महाशतक के समीप भेज कर कहलाया कि--"तुम्हें सथारे में रहे हुए क्रोधित
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