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-- ऐसा करना तो तुम्हारे नियतिवाद के विरुद्ध होगा । जब सभी घटनाएँ नियति के अनुसार ही होती है, उनमें मनुष्य का प्रयत्न कारण नहीं बनता, तो तुम उस पुरुष को दण्डित कैसे कर सकते हो ? तुम्हारे मत से तो कोई भी मनुष्य चारी नहीं करता, न तोड़फोड़ कर सकता है और न तुम्हारी भार्या के साथ दुराचार सेवन करने का प्रयत्न कर सकता है । जो होता है, वह सब नियति से ही होता है, तब किसी पुरुष को अपराधी मान कर दण्ड देने का औचित्य ही कहाँ रहता है ? यदि तुम उस पुरुष को अपराधी मान कर दण्ड देते हो, तो यह तुम्हारे मत के विरुद्ध होगा और तुम्हारा सिद्धांत मिथ्या ठहरेगा ?" भगवान् के इन वचनों ने सद्दालपुत्र का मिथ्यात्व रूपी महाविष धो डाला । वह समझ गया । उसने निर्ग्रन्थधर्म स्वीकार कर लिया और आनन्द श्रमणोपासक के समान वह भी व्रतधारी श्रमणोपासक बन गया । उसकी अग्निमित्रा भार्या भी श्रमणोपासका बन गई । भगवान् ने पोलासपुर से विहार कर दिया ।
तीर्थंकर चरित्र भाग 3
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गोशालक निष्फल रहा
सद्दालपुत्र के आजीविक मत त्याग कर निर्ग्रन्थधर्मी होने की बात गोशालक ने सुनी तो उसने सोचा कि यह बहुत बुरा हुआ । मैं जाऊँ और उससे निर्ग्रन्थ-धर्म का वमन करवा कर पुनः आजीविकधर्मी बनाऊँ । वह चल कर पोलासपुर आया और सद्दालपुत्र के निवास की ओर गया । गोशालक को अपनी ओर आता देख कर सद्दालपुत्र ने मुँह फिरा लिया। उसने गोशालक की ओर देखा ही नहीं। जब गोशाललक ने उसकी उपेक्षा देखी, तो स्वयं बोला । उसकी उपेक्षा मिटाने के लिए भगवान् महावीर की प्रशंसा करते हुए कहा;
'सद्दालपुत्र ! यहाँ ' महा माहन' आये थे ? "
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किन महा माहन के विषय में पूछ रहे हैं आप " -- सद्दालपुत्र का प्रश्न ।
'मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के लिए पूछ रहा हूँ ।"
" आप श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को 'महा माहन' किस अभिप्राय से कहते हैं' -- सद्दालपुत्र ने स्पष्टीकरण चाहा ।
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" श्रमण भगवान् महावीर स्वामी केवलज्ञान- केवलदर्शन के धारक हैं। वे तीनों लोक में पूज्य हैं । देवेन्द्र-नरेन्द्रादि उनकी वन्दना करते हैं । अतएव वे महा माहन हैं"गोशालक ने भगवान् की महानता कह सुनाई ।
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