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________________ २६६ तीर्थंकर चरित्र - भा. ३ जाता । परन्तु जो चित्रकार यक्ष का चित्र बनाता, उसे वह यक्ष मार डालता । यदि भयभीत हो कर कोई चित्र नहीं बनाता, तो उस नगर में वह यक्ष महामारी चला कर लोगों का संहार करता । चित्र बनावे तो दुःख और नहीं बनावे तो महादुःख | चित्रकार नगर छोड़ कर भागने लगे । चित्रकारों के पलायन से नागरिक और राजा विशेष डरे --' यदि चित्र नहीं बने, तो यक्ष का कोप नागरिकों पर उतरेगा और महामारी चलती रहेगी इसलिये चित्रकारो का भागना अत्यधिक दुःखदायक बनेगा। राजा ने चित्रकारों का भागना रोका और उन पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया। फिर सभी चित्रकारों के नाम की परचियाँ बना कर एक घड़े में भर दी गई। प्रतिवर्ष एक परची निकाला जाता । उसमें जिसका नाम होता, उसे यक्ष का चित्र बना कर मरना पड़ता। सभी चित्रकार पहले से भयग्रस्त रहते --' इस बार मृत्यु का ग्रास कौन बनेगा ? कदाचित् मेरा या मेरे प्रिय का ही नाम निकल जाय ?" उस समय साकेत नगर कला में प्रसिद्ध था । दूर-दूर के कलार्थी शिक्षा लेने वहां आते और वहीं रह कर शिक्षा पाते । कौशाम्बी नगरी के एक चित्रकार का पुत्र भी वहाँ गया और एक बुढ़िया के यहाँ रह कर अध्ययन करने लगा । बुढ़िया के एक पुत्र था ओर वह भी चित्रकार था। दोनों के परस्पर मंत्री सम्बन्ध हो गया । एक वर्ष बुढ़िया के पुत्र के नाम की परची निकला । अपने पुत्र का मृत्यु-पत्र पर कर बुढ़िया की छाती बैठ गई । वह गला फाड़ रुदन करने लगी। उसका रुदन सुन कर वह युवक घबराया और वृद्धा के पास आया । वृद्धा ने अपने एकाकी पुत्र के नाम आया हुआ मृत्यु पत्र बताया, तो युवक ने कहा--' 'माँ ! चिंता मत करो । में स्वयं मेरे मित्र के बदले जाऊँगा । आपका पुत्र नहीं जायगा ।" 1 वृद्धा ने कहा--"नहीं, बेटा ! मैं दूसरों के पूत को अपने बेटे के बदले यमराज का भक्ष्य नहीं बनने दूंगी । तेरे भी माँ-बाप, भाई-बहिन हैं । इतने लोग रोवें इनसे तो मैं अकेली रोऊँ, यही अच्छा है और तू भी मेरा बेटा है। मेरे बेटे को तूने भाई माना, तो मैं तेरी भी माँ हुई । नहीं, नहीं, मैं मेरे बेटे की मौत से तुझे नहीं मरने दूंगी ।" 'नहीं, माँ ! मैं अपने मित्र का विरह सहन नहीं कर सकूंगा और आपका कहना नहीं मानूंगा । में ही जाऊँगा । मेरा निश्चय अटल है । अब आप मुझे आशीर्वाद दे कर मौन हो जाइये " -- युवक ने दृढ़ता से कहा । " कौशाम्बी के उस युवक चित्रकार ने बेले की तपस्या की, स्नान किया, शरीर पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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