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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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आर्द्रकमुनि - " तुम्हारा वणिक का उदाहरण अपेक्षापूर्वक ठीक है । समझदार व्यक्ति ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जिसमें किसी प्रकार का लाभ नहीं हो । यदि तुम व्यापारी का दृष्टांत पूर्ण रूप से लागू करते हो, तो मिथ्या है। क्योंकि व्यापारी लोभ- कषाय सं प्रेरित हो कर त्रस स्थावर जीवों की हिंसा आदि पाप कार्य करते हैं और उनका उद्देश्य धनलाभ का होता है। धन को प्राप्ति काम भोग के लिये है । उनका उद्देश्य एवं प्रवृत्ति पाप पूर्ण होती है और इससे वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । परन्तु भगवान् तो वीतरागी हैं और निर्दोष हैं । वे जीवों की मुक्ति के लिए उपदेश देते हैं । अतएव तुम्हारा आरोप मिथ्या है ।"
आर्द्रक मुनि की बौद्धों से चर्चा
गोशालक को निरुत्तर करके मुनि आर्द्रकुमारजी आगे बढ़े, तो उन्हें बौद्ध भिक्षु मिले । उन्होंने कहा-
" आपने गोशालक मत का खंडन किया, यह अच्छा किया। उनका मत बाह्य प्रवृत्ति पर आधारित है । किन्तु हमारा मत तो अन्तःकरण की शुद्धि पर अवलंबित है । बाह्य रूप से पाप दिखाई देते हुए भी यदि भावना शुद्ध है, तो उसमें कोई पाप नहीं है । जैसे कोई व्यक्ति ऐसे प्रदेश में चला गया, जहाँ लोग मनुष्य का भी भक्षण करते हैं । वह डरा । उसने खला के पिण्ड को अपने वस्त्र पहिना दिये और स्वयं छुप गया । म्लेच्छों ने उस खली-पिण्ड को मनुष्य समझा और काट-कूट कर पकाया और खा गए। इसी प्रकार तुम्बा - फल को बालक समझ कर पका कर खा गये, तो उनकी भावना दूषित होने के कारण खली और तुम्बा खाते हुए भी उन्हें मनुष्य हत्या का पाप लगा। क्योंकि उनकी भावना मनुष्य भक्षण की थी । यदि वे साक्षात् मनुष्य को खली-पिण्ड और बालक को तुम्बे की बुद्धि से मार कर खाते, तो पाप नहीं लगता, क्योंकि इसमें भावना मनुष्य हत्या की नहीं है । इस प्रकार शुद्ध भावों से मारे हुए मनुष्य को खाने में पाप नहीं है । ऐसा शुद्ध आहार बुद्ध को पारण में लेना और खाना योग्य है ।'
जो पुरुष प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह महान् पुष्य का आर्जन करता है और सर्वोत्तम देव पद प्राप्त करता है ।
आर्द्रकमुनिजी कहते हैं - " आपका कथन अयुक्त है । सयत पुरुषों के लिए इस
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