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वैदिकों से चर्चा
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प्रकार प्राणाहसा कर के पाप का अभाव बताना और ऐसा उपदेश देना ही पाप है। ऐसी बातों पर अजानीजन हा श्रद्धा करते हैं ।"
''जा पुरुष ऊर्ध्व अधा और तिर्यक् लोक में स्थित श्रस और स्थावर प्राणियों को जान कर, लक्षणों से पहिवान कर, उनकी रक्षा के लिए निदोष वचन बोलते हैं और निर वद्य प्रवृत्त करते हैं, ऐसे पुरुष ही पाप से वंचित रहते हैं । एसे धर्म के वक्ता और श्राना ही उत्तम है।"
"खला पिण्ड में पुरुष की कल्पना या पुरुष में खली की कल्पना करना सम्भव नहीं है। इस प्रकार का वचन भा मिथ्या है । अनार्य व्यक्ति हा. ऐसी मिथ्या कल्पना करते हैं। जो वचन पापपूर्ण है, उसे आर्यजन ही बोलते । वचन-विवेक आयजनों का आचार है।"
___ "अहो शाक्य भिक्षओ ! क्या कहना आपके तत्त्वज्ञान का ? कैसी है आपकी बुद्ध ? और के सा है आपका दर्शन, जो कल्पना मात्र से मनुष्य को खली मान कर खा जाता है ? हमारे जिनशासन में इस प्रकार की मिथ्या-कल्पना को कोई स्थान नहीं है। हम जावों को पीड़ा को भली प्रकार से समझते हैं। इसलिये शुद्ध एवं निर्दोष-आहार ग्रहण करते हैं। ऐसे मायापर्ण वचन हम नहीं बोलते ।"
“इस प्रकार के दो हजार भिक्षुओं को प्रति दिन भोजन करा कर जो धर्म मानता है, वह असंयम-पाप का पोषक है । उसके हाथ रक्त से लिप्त रहते हैं । इस प्रकार पापप्रवृत्ति वाला लोक में निन्दित होता है।"
"तुम भिक्षुओं के लिए वह मोटी-ताजी भेड़ मार कर मांस पकाता है और तेल नमक आदि से स्वादिष्ट बना कर तुम्हें खिलाता है और तुम उसे भरपेट खा कर अपने को पाप से अलिप्त मानते हो। यह तुम्हारे धर्म की अनार्यता है और रस-लोलुपता है । अज्ञानी-जन ही ऐसा पाप करते हैं । ज्ञानीजन न तो ऐसा भोजन करते हैं और न अनुमोदन ही करते हैं।"
"ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर प्रभु ने समस्त जीवों की दया के उद्देश्य से हिंसादि दोषों से बचने के लिए, साधुओं के लिए बनाये हुए भोजन को त्याज्य कहा है। इस प्रकार हिंपादि दोष से वंचित, निर्दोष आचरण करने वाले निर्ग्रन्थ-भिक्षु अत्यन्त उच्च है और प्रशंसनीय होते हैं ।"
वैदिकों से चर्चा बौद्ध भिक्षु के मत का निराकरण कर के आगे बढ़ते हुए मुनिराज को वेदवादी मिले और बोले-"आपने गोशालक और बौद्ध मत का निराकरण किया, यह अच्छा किया।
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