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________________ आद्रकमुनि की गोशालक आदि से चर्चा २८५ हो, जो सचित्त जल, ब ज आदि का सेवन करते हैं और अपने सिद्धांतानुसार आचरण कर के मुक्ति प्राप्त करना मानते हैं अपने मत के अतिरिक्त सभी के मत को असत्य कह कर उनका अपमान करते हो, क्यों ?" आर्द्रक मनि-"मैं किसी व्यक्ति की उसके रूप-रग और वेश आदि की निन्दा नहीं करता, परन्तु जो दृष्ट-मन्तव्य-दोष युक्त है, उमी का यथार्थ दर्शन कराता हूँ। मै वही सिद्धांत प्रकट कट करता है जिसे सर्वज्ञ-सवदर्शी व तराग महापुरुषों ने कहा है। वस तम और अन्य मत वाले भी अपने दशन की प्रशसा और दूसरों की निन्दा करते हो । हम तो वस्तुस्वरूप बतलाते हैं, जिससे जीवों का विवेक जाग्रत हो और वे अपना हित साधे ।" "जिस प्रकार मनुष्य आँखों से देख कर पत्थर, कंटक, विष्ठा, सर्पद तथा गड्ढे आदि से बचता हुआ उत्तम मार्ग पर चलता है और सुखी होता है, उसी प्रकार विवेकी पुरुष कुज्ञान, कुदृष्टि, कुमार्ग और दुराचार का त्याग कर सम्यक् ज्ञानादि का आश्रय लेते हैं और सम्यक् मार्ग का प्रकाश करते हैं। यह किसी की निन्दा नहीं है । वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना निन्दा नहीं है । अतएव तुम्हारा आरोप असत्य हैं।" गोशालक फिर कहता है-"तुम्हारा महावीर डरपोक है। जहाँ बहुत-से दक्ष बुद्धिमान् और तार्किक लोग रहते हैं, उन धमशालाओं और उद्यानगृहों में वह नहीं ठहरता। वह डरता है कि वे बुद्धिमान् मेधावी लोग कहीं सूत्र और अर्थ के विषय में मुझ से कुछ पूछ नहीं ले । इस भय के कारण वे एकान्तवास करते रहे हैं।" आर्द्रकमुनि-"तुम्हारा यह आरोप भी असत्य है । भगवान् निष्प्रयोजन और बालक के समान व्यर्थ कार्य नहीं करते । भगवान् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं । वे अपने तीर्थंकर नामकर्म के उदय से प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं । जिस कार्य से प्राणियों का हित होता है, वही करते हैं । जहाँ किसी का हित नहीं हो, उसमें वे प्रवृत्त नहीं होते । उपदेशदान और प्रश्न का उत्तर भी वे तभी देते हैं कि जब उससे किसा का हित होता हो, अन्यथा वे मौन रह जाते हैं । भगवान् का उपदेश भी राग-द्वेष रहित होता है, चाहे चक्रवर्ती नरेन्द्र हो, या कोई दरिद्र । वे सभी को समान रूप से प्रतिबोध देते हैं। भगवान् राजा-महाराजा से भी नहीं डरते । वे भयातीत हैं । जो अनार्य हैं, दर्शन-भ्रष्ट हैं, उनके निकट जाना व्यर्थ है । इसलिए भगवान् धर्मोपदेश उन्हीं को देते हैं जिनका हित होने वाला हो । यह भगवान् के तीर्थंकर नामकर्म के उदय का परिणाम है।" __ गोशालक-“लगता है कि तुम्हारा महावीर वणिक के समान स्वार्थी है। वह वहीं जाता है, जहां उसे लाभ दिखाई देता है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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