SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर चरित्र-भाग ३ २८४ कककककककककककककक-parprapककककककककककककककककककककककककककककककका - क अवस्याएँ आत्म-परिणति से समान हैं। पहले वे जिस एकान्त-वास में रहते थे, अब भी वे श्रमण-समूह में रहते हुए भी राग द्वेष रहित होने के कारण एकान्तवास के समान ही हैं । घाती कर्मों को नष्ट करने के लिये उन्होंने एकान्तवास अपनाया था । घाती-कर्म नष्ट हो जाने के बाद एकान्तवास साधने की आवश्यकता हो नहीं रही । जब मोह नष्ट हो गया, तो राग-द्वेष की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती । और जो राग-द्वेष रहित वीतराग हैं, उनके लिए एकान्तवास और समूह के मध्य रहना एक समान है । सभा में धर्मोपदेश देना और भव्यजनों को दीक्षित कर के मोक्षमार्ग के साधक बनाना, तो उनके तीर्थकर नामकर्म के उदय से होता है । इसमें कोई दोष नहीं है। वे परम तारक हैं। उनमें आडम्बर देखना और आजी विकार्थ पाखण्ड चलाने की कल्पना करना, तुम्हारी विकृत बुद्धि का परिणाम है । भगवान् तो अब भी क्षांत-दांत और जितेन्द्रिय हैं । भाषा के समस्त दोषों से रहित उनकी वाणी भव्य जीवों के लिए परम हितकारिणी है। उनके धर्मोपदेश से पाँच महाव्रत, पाँच अणुव्रत और पाँच आस्रव को रोक कर संवर रूप विरति के महान् गुणों की साधना होती है । गोशालक कहता है--"जिस प्रकार तुम्हारे धर्म में शीतल जल और बीजकाय आदि तथा आधाकर्म वस्तु तथा स्त्री से वन का साधु गों लिये निषेध किया है, वैसा मेरे धर्म में नहीं है । मेरा सिद्धांत है कि एकांतचारी तपस्वी शीतल (सचित्त) जल, बोजकाय, आधाकर्म युक्त आहारादि तथा स्त्री-सेवन करे, तो पाप नहीं लगता।" आर्द्रमुनि उत्तर देते हैं--"तुम्हारा सिद्धांत दूषित है। सचित्त जल, बीजकाय, आधाकर्मी दोषयुक्त वस्तु के सेवन करने वाले को साधु माना जाय, तो गृहस्थ और साधु में अन्तर ही कोनसा रहा ? जो हिंसा, मृषा, अदत्त, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा त्याग करे, वही 'श्रमण' होता है। घर छोड़ कर विदेश जाने पर और अन्य कारणों से गृहस्थ भी अकेले रहते हैं। विशेष प्रसंग पर भूखे भी रहते हैं निर्धन और स्त्री-रहित भी होते हैं, परन्तु इतने मात्र से वे श्रमण नहीं माने जाते । आजीविका भिक्षा करने वाले भी कर्म के बन्धन में ही बँधे रहते हैं । जो अनगार भिक्षु हैं उन्हें नो सम्पूर्ण रूप से अहिंसादि महाव्रतों का पालन करना ही चाहिए । अतएव तुम्हारा सिद्धांत दुषित है।" गोशालक--"आद्र ! तुम तो अग्ने सिवाय उन सभी दार्शनिकों की निन्दा करते * गोशालक और आर्द्रमुनि की चर्चा का स्वरूप सूत्रकृतांग में इसी आशय का है, परन्तु त्रि, श. पु च. में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद से सम्बन्धित चर्चा होना बताया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy