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तीर्थङ्कर चरित्र-भाग ३
एवं शोक-संताप में विताये । आज आपके दर्शन हए है। अब प्रसन्न हो कर मुझं स्वीकार करिये । यदि अब आपने मेरी क्रूरता पूर्ण अवज्ञा की, तो में अग्नि में जल कर आत्महत्या कर लूंगी, जिससे आपको स्त्री हत्या का पाप लगेगा।"
सेठ को जामाता मिलन का समाचार मिला। वे दौड़े आये । अन्य लोग और राजा तक आ कर मुनिजी को समझाने लगे। अब उदय भाव भी अपना कार्य करने लगा। मुनिजी को विचार हुआ--"देव ने उस समय मुझे कहा था, वह सत्य ही था।" उन्होंने सभी का आग्रह स्वीकार किया और साधुता का वेष तथा उपकरण एक ओर रख कर श्रीमती को स्वीकार की। श्रीमती के साथ चिरकाल भोग भोगते हुए उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई । पुत्र कुछ बड़ा हुआ। वह चलने-फिरने और तुतलाता हुआ बोलने लगा, तव आर्द्रकुमार ने पत्नी से कहा--" अब तुम पुत्र को सम्भालो । बड़ा हो कर यह तुम्हारी सेवा करेगा। अब मैं पुनः श्रमणधर्म का पालन करूँगा।"
श्रीमती उदास हो गई। उसने रुई और चरखा मँगवाया और मूत कातने लगी। पुत्र ने माता को सूत कातते देख कर पूछा--"यह क्या कर रही हो--माँ ?"
“पुत्र ! तुम्हारे पिताजी हमें छोड़ कर, निराधार बना कर साधु बनने जा रहे हैं । इनके चले जाने के बाद मेरा आश्रय यह चरखा ही रहेगा। इसी के सहारे मैं जीवन व्यतीत कर सकूँगी।"
___ माता की बात सुन कर पुत्र विचार में पड़ गया। उसने कुछ सोच कर कहा-- "माता ! तुम चिन्ता मत करो। मैं पिताजी को बाँध कर पकड़ रखूगा। फिर वे कैसे जा सकेंगे ? लाओ मुझे तुम्हारा काता हुआ यह धागा दो। मैं उन्हें अभी बाँध देता हूँ।"
उस समय आर्द्रकुमार वहीं लेटे हुए पुत्र की तोतली बोली से निकली हुई बात-- आँखें मूंदे हुए सुन रहे थे। पुत्र ने सूत्र का धागा लिया और दोनों पांव पर लपेटने लगा। सूत लपेटने के बाद बोला-- __ "लो, माँ ! मैने पिताजी को बाँध दिया है। अब वे नहीं जा सकेंगे।"
पुत्र की स्नेहोत्पादक वाणी ने पिता के मोह को जगा दिया। वे मोहमहिपति से फिर पराजित हो गए। उन्होंने निश्चय किया कि 'मैं उतने ही वर्ष फिर संसार में
हूँगा, जितने सूत के बन्धन इम लाडले ने मेरे पांवों में बाँधे हैं।' गिनने पर बारह बन्धन हुए । वे बारह वर्ष के लिये फिर गृहवास में रह गए । कुल चौवीस वर्ष पूर्ण होने पर उन्होंने रात्रि के अन्तिम पहर में विचार किया--"मैने इस संसार रूपी रूप में से निकलने
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