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आर्द्रमुनि का पतन
२८१ • ဖုန်းကို ဖုန်းဖုန်းပြန်။
आया और पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'श्रीमती' रखा । वह रूप सम्पन्न था । यौवन-वय में उसकी सुन्दरता विशेष विकसित हुई। एकबार वह सखियों के साथ उमी उद्यान में आ कर खेलने लगी। उनका खेल पति-पत्नी का था । अन्य सहेलियों क तो ज ड़े बन गए, परन्तु श्रीमती अकेली रह गई। उसने मन्दिर में ध्यानस्थ रहे हुए आर्द्रमुनि को देखा और शीघ्र बोल उठी--
“मैं तो इस महात्मा को अपना पति बनाती हूँ।" देवमन्दिर से देववाणी हुई-- "तुने ठीक किया । यही तेरा वर है ।" देव ने रत्नों की वर्षा भी की । देववाणी से डर कर श्रीमती आर्द्र मुनि के चरणों में लिपट गई। पूर्वभव के स्नेह सम्बन्ध ने अनायास ही ही मिला दिया। इस अचानक आये हुए अनुकूल उपसर्ग से मुनि स्तंभित रह गए। उन्होंने सोचा--"अब मेरा यहाँ रुकना उचित नहीं है ।" वे अन्यत्र चले गए ।
रत्नवर्षा की बात सुन कर वहाँ का राजा अपने सेवकों के साथ वहां आया और उन रत्नों पर राज्य का अधिकार मान कर ग्रहण करवाने लगा। तब देव-माया से वहाँ अनेक सर्प दिखाई दिये और ये शब्द गुंजने लगे--
"यह द्रव्य इस कन्या के अकिंचन वर के लिये है। इसे कोई अन्य नहीं ले सकता।' देववाणी सुन कर वे रत्न, देवदत्त सेठ ने लिये और पुत्री के लिये पृथक् रख दिये।
श्रीमती को विवाह योग्य जान कर पिता, वर की खोज में लगा । श्रीमती को प्राप्त करने के लिये अनेक वर आये, किंतु श्रीमती ने किसी को देखा भी नहीं और स्पष्ट कह दिया--"पिताजी ! मैं तो उसी दिन उस मुनि की पत्नी हो चुकी हैं। अब किसी अन्य वर को देखना मेरे लिये उचित नहीं है।"
पिता ने कहा--"पुत्र ! अब वे मुनि कहाँ मिलेंगे ? उनकी पहिचान क्या है ?"
"पिताजी ! उस देवालय में हुई देववाणी से भयभीत हो कर मैने उन मुनिजी के चरण पकड़ लिये थे। उस समय उनके चरण पर रहा हुआ एक चिन्ह मैने देखा था। वह चिन्ह देख कर मैं उन्हें पहचान लूंगी। अब इस नगरी में जो मुनि आवें, उन्हें मैं भिक्षा दूंगी और उनके चरण देखती रहूँगी । इस निमित्त से वे मुनि पहिचाने जा सकेंगे।"
श्रीमती नगर में आने वाले संत-महात्माओं को दान देने लगी। इस प्रकार करते बारह वर्ष व्यतीत हो गये । अचानक एक सन्त को आहार देते समय श्रीमती को मुनि के चरण में वह चिन्ह दिखाई दिया। वह पहिचान कर बोली--"नाथ ! उस देवालय में मैन आपको वरण किया था, तभी मे आप मेरे पति बन चुके हैं। उस समय मैं मुग्धा थी और आप मुझे छोड़ कर चले गये थे, परन्तु अब आप नहीं जा सकेंगे। इतने वर्ष मैने चिता
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