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________________ २८० तीर्थंकर चरित्र-भा. ३ अच्छा है। वहाँ जाना हितकारी नहीं होगा। अपना कोई भी पूर्वज वहाँ नहीं गया । इसलिए मैं तुम्हें भारत जाने की अनुमति नहीं दे सकता।" __कुमार निराश हो गया । हताशा ने शोक एवं उद्वेग को जन्म दिया। वह दिनप्रतिदिन दुर्बल होने लगा। उसे भारत के मगध देश, राजगृह नगर और अभयकुमार की बातों में ही रस आने लगा । जी राजगृह जा कर आये थे, उनसे वह बार-बार पूछता। उनकी गतिविधि जान कर राजा को सन्देह हुआ कि कहीं पुत्र चुपके से भारत नहीं चला जाय । इसलिए राजा ने अपने पुत्र की रखवाली में पाँच सौ सामंत लगा दिये और सावधान करते हुए कहा--"ध्यान रहे कि कुमार अपनी सीमा लाँघ कर बाहर नहीं निकले।" कुमार के गमनागमन, वन-विहार आदि में वे सामन्त साथ रह कर रखवाली करने लगे। आर्द्रकुमार अपने को बन्दी मानने लगा। उसने भारत पहुँचने के लिए, इस सैनिक पराधीनता से मुक्त होने की योजना बनाई। वह अश्वारूढ़ हो वनविहार में कुछ आगे बढ़ने लगा । कुमार कुछ दूर निकल जाता और फिर लौट आता। सैनिक इतने दिन का चर्या से आश्वस्त हो गये थे । कुमार को विश्वास हो गया कि अब मेरा यहां से निकल कर भारत जाना सरल हो गया है। उसने अपने विश्वस्त सेवक द्वारा समद्र पर एक जल. यान की व्यवस्था करवाई और उसमें बहुत-सा धन और अन्य आवश्यक सामग्री रखवा ली । रक्षकों को भुलावा दे कर घोड़ा दौड़ाता हुआ कुमार समुद्र पर पहुँचा और जहाज में बैठ कर भारत आ पहुँचा । अपने आप साधुवेश धारण कर के संयम स्वीकार करते समय किसी देव ने उससे कहा--" हे महासत्त्व ! अभी आपको भोग जीवन व्यतीत करना है । उदय आने वाले कर्म को भोग कर बाद में दो क्षित होना।" किन्तु आर्द्रकुमार की त्यागभावना तीव्र थी और क्षयोपशम-भाव की प्रबलता थी। इमलिये उन्होंने देववाणो को उपेक्षा को और संयमो बन कर विचरने लगे। आर्द्रमुनि का पतन - स्वयं-द क्षित आर्द्रकुमार मुनि संयम साधना करते हुए वसंतपुर आये और नगर के बाहर उद्यान के एक देवालय में ध्यान लगा कर समाधिस्थ हो गए । इस नगर म देवदत्त नाम का एक सेठ रहता था। वह उच्च कुल का सम्पत्तिशाली था। धनवता नामकी उसकी पत्नी थी। बन्धुमती साध्वी का जीव देवलोक से च्यव कर धनवती की कुक्षि में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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