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दुर्गन्धा महारानी बनी
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__ "भगवन् ! मैने अभी आते समय एक सद्य जात परित्यक्ता कन्या देखी । उसके शरीर से तीव्र दुर्गन्ध निकल रही थी। क्या कारण है-प्रभु ! इस दुर्गन्ध का?"
__ "देवानुप्रिय ! तुम्हारे इस प्रदेश में शालीग्राम में धन मित्र नाम का एक श्रेष्ठ रहता था। उसके धनश्री न म की पुत्री थी। यौवनवय में उसका विवाहोत्सव हो रहा था। ग्रीष्मऋतु थो । ग्रामानुप्रान विहार करते कुछ साधु उस ग्राम में आये और धन मित्र के घर में भिक्षार्थ प्रवेश किया। सेठ ने पुत्री को आहार दान करने का आदेश दिया । धनश्री का शरीर चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य से लिप्त था । उसके आसपास सुगन्ध फैल रही थी। वह ज्यों हो आहार-दान करने मुनियों के समीप आई। उनका शरीर और वस्त्र प्रस्वेद से मलिन और दुर्गन्ध युक्त थे । वह दुर्गन्ध धनश्री की नासिका में प्रवेश कर गई । अंगराग एवं शुगार में अनुरक्त धनश्री उस दुगन्ध को सहन नहीं कर सकी और सोचने लगी-“संसार के सभी धर्मों से जिनधर्म श्रेष्ठ है, परन्तु इसमें एक यही बुराई है कि साधु साध्वियों को प्रामुक जल से भी नान करने का निषेध किया गया है । यदि प्रासुक जल से स्नान करने एवं वस्त्र धोने को आज्ञा होती, तो कौनसा दोष लग जाता?" इस प्रकार जुगुप्सा कर के कर्मों का बन्धन कर लिया। इस पापकर्म की अलोचनादि किये बिना ही कालान्तर में मृत्यु पा कर वह राजगृह की एक वेश्या की कुक्षि में उत्पन्न हुई । गर्भकाल में वेश्या अति पोडित रही। उसने गर्भ गिराने का प्रयत्न किया, परन्तु सफल नहीं हुई । इसका जन्म होते ही वेश्या ने इसे फिकवा दिया। वही तुम्हारे देखने में आई है।"
"भगवन् ! उस बालिका का भविष्य कैसा है ?"-श्रेणक ने पूछा ।
--"वह किशोर वय में ही तुम्हारी पटरानी बन जाएगी और तुम पर सवारी भी करेगो'-भगवान् ने भविष्य बताया। राजा को इस भविष्यवाणी से बड़ा आश्चर्य हुआ।
दुर्गन्धा महारानी बनी
ए वन्ध्या अहीरन ने दुर्गन्धा को देखा, तो उठा कर अपने यहाँ ले आई और पालन क ने लगी । दुर्गन्धा का अशुभगन्ध-नामकर्म क्षीण होते-होते नष्ट हो गया और वन्दप लावण्य युक्त आकर्षक सुन्दरी हो गई । किशोर अवस्था में ही उसके अवयव विकसित हो गये और युवती दिखाई देने लगी। एकबार कौमुदी महोत्सव का मेला लगा। उम मेले को देखने के लिए वह किशोरी भी माता के साथ गई। वह स्वाभाविक चंचलता
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