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________________ भगवान् ने भ्रम मिटाया २६७ . ** { ၈၈၇၀၀၀၀၀ ၈၀၀၀ နီးနီးဝန်းနေ प्रतिमाधरी मुनि को उत्तरीय वस्त्र से रहित ध्यानस्थ खड़े देखा । राजा-रानी वाहन से नीचे उतरे और मुनि को भवितपूर्वक वन्दन किया। वन्दना कर के उनकी साधना की प्रशंसा करते हुए स्वस्थान आये । रात के समय नींद में महारानी का हाथ दुशाले से बाहर निकल गया, तो उस पर ठण्ड का तीव्र स्पर्श हुआ । महारानी की नींद उचट गई । अपने हाथ को दुशाले में ढकती हुई महारानी के मुंह से ये शब्द निकले-" ऐसी असह्य शीत को वे कैसे सहन करते होंगे।" महारानी की नींद के साथ ही महाराजा की नींद भी खुल गई थी। राजा ने महारानी के शब्द सुने, तो उनके मन में प्रिया के चरित्र में सन्देह उत्पन्न हुआ। उन्होंने लोचा-" रानी को अपना गुप्त प्रेमी स्मरण में आया है, जिसकी चिन्ता रानो को नोंद में बनी रहती हैं।" श्रेणिक के मन ने यही अन मान लगाया और अपने भ्रम को सत्य मान लिया, जब कि महारानी के मह से-उन प्रतिमाधारी महात्मा का विचार आने से शब्द निकले थे । राजा और रानी दोनों ने दिन को ही एक साथ महात्मा के दर्शन किये थे और उनकी यह उग्रतर साधना देखी थी। रानी के मन पर उसी साधना का प्रभाव छाया हआ था । उन महात्मा का स्मरण इस कड़कड़ाती तनतोड़ शीत में उसे हआ और अपने हाथ में लगी ठण्ड की असह्यता से उसे विचार हुआ कि-" में भवन के भीतर शीत. लहर एवं ठण्डक से सुरक्षित शयनागार में भी हाथ के खुले रहने से ठिठर गई, तब वे महात्मा जलाशय के निकट अनावरित शरीर से, शूल के समान हृदय और पसलियों में पेठतो हुई ठ को कैसे सहन कर रहे होंगे।" उदयभाव को विचित्रता से मनुष्य भ्रम में पड़ कर अजय कर बना है। राजा ने इन भ्रमित विचारों में ही रात व्यतीत की। प्रातःकाल राजा ने अभयकुमार को आदेश दिया- 'ये सभी रानियाँ चरित्रहीन दुराचारिणो हैं। इनके भवनों में आग लगा कर जला दो।" आदेश दे कर महाराज भगवान् को वन्दना करने चले गए। भगवान ने भ्रम मिटाया अभय कुमार पिता का आदेश सुन कर स्तब्ध रह गए। उन्होंने सोचा-'पिताश्री को किसी प्रकार का भ्रम हुआ होगा । अन्यथा मेरी माताएँ शीलवती हैं। इनकी रक्षा करना हो होगी । कुछ काल व्यतीत होने पर पिताश्री का कोप शान्त हो सकता है, फिर भी मुझ आदेश पालन का कुछ उपाय करना ही होगा।' उन्हें एक उपाय सूझ गया। न्तःपुर के निकट हस्ती शाला की जीर्ण एवं टूटी हुई खाली कुटियाँ थी। उसे विश्वस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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