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________________ नन्दी सेनजी की दीक्षा और पतन ककककककककककककककककककककक कककककककककक ककककक ककककककक ककककककककककककककककककका लौट गई। नन्दीसेन कुमार पर भगवान् के उपदेश का गहरा रंग लगा । वह माता-पिता की अनुमति ले कर भगवान् के पास दीक्षित हो गया । जब वह दीक्षा लेने जा रहा था, तत्र एक दब ने उस से कहा कि- " तुम्हें अभी भोग जीवन जीना है । कर्म-फल- भोगने के बाद दीजित हा+।' नन्दोसेन पर क्षयोपशम की विशिष्टता से निर्वेदभाव की प्रबलता थी । उसने देव णा की उपेक्षा करदो और भगवान् के सान्निध्य में दीक्षित हो गया और ज्ञानाभ्यास और तपस्य पूर्वक संयम की साधना करने लगा । कालान्तर में उदयभाव प्रबल हुआ और कामना जाग्रत होने लगी, तो वे उग्र तप कर के वासना को क्षय करने में गये और श्मशान भूमि जा कर आतापना लेने लगे । जब घोर तपस्या से भी इन्द्रियों की उच्छलता नहीं मिटी, तो उन्होंने अत्मघात करने का प्रयत्न किया, किन्तु वह भी सफल नहीं हुआ । शस्त्र से देह को छेद मरना चाहा, तो शस्त्र कुण्ठित हो गया, मारक विष बदबूद्ध बन गया, अबूझ गई, फाँसी टूट गई और पर्वत पर से गिरे, तो कहीं भी चोट नहीं आई । देव सर्वत्र रक्षा करता रहा । अन्त में देव ने कहा - " नन्दीसेन ! तुम्हारे भोग योग्य कर्मों का प्रबल उदय है । वह सफल होगा ही । तुम उसे व्यर्थ नहीं कर सकोगे।" उन्होंने फिर उपेक्षा की और तपस्या करते रहे । एकबार वे पारणा लेने के लिए निकले और अनायास एक वेश्या के घर चले गये । वेश्या ने देखा कि एक साधु आ रहा है । इसके पास मुझे देने के लिये क्या होगा ? वेश्या ने पूछा - " गाँठ में कुछ ले कर आये हो ? ' " भद्रे ! मैं तो साधु हूँ । मेरे पास तो धर्म है " - नन्दीसेन बोले । "तो फिर चलते बनो । यहाँ धर्म नहीं, अर्थ चाहिये । यदि अर्थ हो तो आओ"वेश्या ने अपनी जात बता दी । २६५ नन्दीसेन मुनि को तपस्या से कुछ लब्धियाँ प्राप्त हो गई थी। उन्होंने एक तिनका उठा कर फेंका और रत्नों का ढेर हो गया। मुनि वहाँ से चल दिये । वेश्या ऐसे रत्न भण्डार को कैसे छोड़ सकती थी । वह आगे बढ़ी और मुनिजी से लिपट गई। नन्दीसेन अपने को + ग्रन्थकार लिखते हैं कि भगवान् ने उसे मना करते हुए कहा- " अभी तेरे चारित्र मोहन मं का भोग करना शेष है। तू अभी त्याग मत कर ।" यह बात समझ में नहीं आती। इससे भगवान् की सर्वज्ञता में सन्देह उत्पन्न होता है । सर्वज्ञ तो जानते हैं कि यह दीक्षित होगा ही, फिर मेरे निषेध करने का महत्व ही क्या रहेगा ? तथा पतित हो जाने पर भी पाली हुई दीक्षा लाभकारी तो रहेगी ही जिसमे पुनः दीक्षित होना सरल हो जायगा । जमाली को विहार की मना नहीं करने वाले भगवान ने नन्दीमेन कोनोंकि इसकी प्रामाणिकता में सन्देह होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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