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________________ महाराजा श्रेणिक को बोध प्राप्ति <«»>+3+63 + @+ " " 'जब सभी अपना-अपना प्रयत्न कर के हताश हो गए और मेरी व्यावि जैसी की तैसी बनी रही, तब मैं समझा कि मेरा रक्षक कोई नहीं है । उस समय मैंने धर्म की शरण और संकल्प किया कि - " यदि मैं इस महावेदना से मुक्त त्याग कर के अनगार-धर्म का पालन करूँगा और क्षमावान् मूठ का नष्ट करता हुआ विचरण करूँगा ।" मेरा संकल्प प्रभावशाली हुआ । उसी क्षण स मेरी वेदना कम होने लगी । ज्यों-ज्यों रात्रि बीतती गई, त्यों-त्यों मेरा रोग नष्ट होता गया और प्रातःकाल होते ही में पूर्ण निरोग हो गया । अपने माता-पिता को अनुमत कर मैंने निग्रंथ प्रव्रज्या स्वीकार की । अब मैं अपना, दूसरों का और सभी त्रस स्थावर प्राणियों का नाथ हो गया हूँ ( मैं अपनी आत्मा का रक्षक बन गया हूँ । दूसरा कोई रक्षक बनना चाहे, तो उसकी आत्म-रक्षा में सहायक हो सकता हूँ और समस्त प्राणियों को अभयदान देता हुआ विचर रहा हूँ) ।" २६१ हो गया, तो दमितेन्द्रिय हो Jain Education International +6 " राजेन्द्र ! अपनी आत्मा ही दुःख-सुख की कर्ता है । अनाथ और सनाथ बनना आत्मा के दुःकृत्य-सुकृत्य पर आधारित है, भौतिक सम्पत्त या परिवार नहीं । अब तुम्हीं सोचो कि तुम अनाथ हो या सनाथ ? " 'महाराजा ! वैभवशाली नरेश ही अनाथ नहीं है । वे वेशोपजीवी भी अनाथ हैं, जो निग्रंथ धर्म ग्रहण कर और महाव्रतादि का विशुद्धता पूर्वक पालन करने की प्रतिज्ञा कर के भी धर्म भ्रष्ट हो जाते हैं। रसों में गृद्ध, सुखशीलिये और अनाचारी बन जाते हैं । वे कुशीलिये * तो पोली मुट्ठी, खोटं सिक्के और कांच टुकड़े के समान निःसार ही है । शोपजीवी अनाथ ही रहेंगे । उनका संसार से निस्तार नहीं हो सकता । , महात्मा के वचन सुन कर श्रेणिक सन्तुष्ट हुआ और विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर इन सभी का कर दुःख के For Private & Personal Use Only बोला " हे महर्षि ! आपने सनाथ अनाथ का स्वरूप अच्छा बताया । वस्तुतः आप ही सनाथ हैं । अनाथों के भी नाथ हैं। आप जिनेश्वर भगवंत के सर्वोत्तम मुक्ति मार्ग के आराधक हैं । मैंने आपके ध्यान में विघ्न किया । इसकी क्षमा चाहता हुआ आपका धर्मानुशासन चाहता हूँ ।" * यह 'कुशील' विशेषण 'दुराचारी' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । भगवती २५-६ के 'निर्ग्रन्थ ' अर्थ में नहीं । www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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