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________________ महाराजा श्रेणिक को बोध-प्राप्ति और अलौकिक शक्ति की बहुत प्रशंसा की और उन्हें भोजन का निमन्त्रण दे कर रानी को व्यवस्था करने का कहा। रानी ने उनकी सर्वज्ञता और महत्ता की परीक्षा करने के लिए गप्त रूप से विश्वस्त सेवकों द्वारा फटे-पुराने जुते मँगवाये। उनके छोटे-छोटे टुकड़े करवा कर धुलवाये और पका कर बहुत नरम बना दिये, फिर रायता बना कर उसमें डाल दिये और अनेक प्रकार के मसाले डाल कर अति स्वादिष्ट बना दिया। भोजन के समय बह रायता रुचिपूर्वक प्रशंसा करते हुए खूब खाया। उनके चले जाने के बाद रानी ने राजा को बताया कि आपके गरु कैसे सर्वज्ञ हैं ? इन्हें यह तो ज्ञात ही नहीं हो सका कि मैं क्या खा रहा हैं? रानी ने भेद बताया, तो राजा को विश्वास नहीं हुआ। उसने गुरु से वमन करवा कर परीक्षा की, तो रानो की बात सत्य निकली। उनकी आँखे तो खुल गई, परन्तु रानी के गुरु की भी वैसी दशा कर के उसे लज्जित करने (बदला लेने की भावना जगी। उन्होंने रानी को भी उसके गुरु के साथ वैसा ही कर दिखाने की प्रतिज्ञा की। रानी सावधान हो गई। उसने ऐसा प्रबन्ध किया कि जो अतिशय ज्ञानी सन्त हों, बे ही इस नगर में आवें । एकबार चार ज्ञान के धारक महात्मा पधारे । उन्हें उपवन के एक मन्दिर में ठहराया गया। राजा ने गुप्त रूप से उस मन्दिर में एक वेश्या को प्रवेश कराया और बाहर से द्वार बन्द करवा दिये। वेश्या अपनी कला दिखाने लगी। महात्मा ने ज्ञान-बल से सारा षड्यन्त्र जान लिया। फिर उन्होंने वेश्या को भयभीत कर के एक ओर हट जाने पर विवश किया और दीपक की लौने अपने वस्त्र जला कर उसकी राख शरीर पर चुपड़ ली। प्रातःकाल राजा रानी को उसके गुरु के कारनामे दिखाने उपवन में लाया और हजारों नागरिकों को भी इकट्ठा कर लिया। द्वार खोलने पर राजा को ही लज्जित होना पड़ा। क्योंकि वे रानी के गुरु के बदले उसी के गरु दिवाई दे रहे थे। इस प्रकार की कुछ कथाएँ प्रचलित है । अन्त में रानी का प्रयत्न सफल हुआ। इन कथाओं का प्राचीन आधार जानने में नहीं आया।) महाराजा श्रेणिक जिनधर्म से परिचित नहीं थे। एकबार मण्डिकुक्षि उद्यान में वन-विहार करने गए। वहां उन्होंने एक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ श्री अनाथी मुनि को देखा । उनका देदीप्यमान् तेजस्वी शरीर एवं महान् पुण्यात्मा के समान आकर्षक सौम्य मुख देख कर नरेश चकित रह गए। महात्मा की साधना ने भी राजेन्द्र को प्रभावित किया। परन्तु राजा सोच रहा था कि ऐसी सुघड़ देह वाला आकर्षक युवक, अभावों से पीड़ित होगा, भोग के साधन इसे उपलब्ध नहीं हुए होंगे और माता-पितादि किसी स्नेही के वरदहस्त की छाया इस पर नहीं रही होगी। इसलिये यह साधु बना है। परन्तु इसका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली है । यह तो मेरा पार्श्ववर्ती होने योग्य है । यदि यह मान जाय, तो में इसे भोग के सभी साधन दे कर अपना मित्र बना लूं । राजेन्द्र ने मुनि को साधु बनने का कारण पूछा। महात्मा ने बताया--"राजेन्द्र ! मैं अनाथ था। इसीलिए साधु बना हूँ।" राजेन्द्र ने कहा--"हो सकता है कि आपके माता-पितादि रक्षक नहीं रहे हों और अभावों से पीड़ित हो कर आपने साधुत्व स्वीकार किया हो । क्योंकि साधुओं के लिए पेट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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