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________________ मेघमुनि का पूर्वभव २५७ कि मादककककककककककककककक ककककककककककककककककककककककककका देखा और उपमें पानी पीने के लिए वेगपूर्वक घुसे, किंतु किनारे के दलदल में ही फंस गा । तुमने पाँव निकालने के लिये जोर लगाया, तो अधिक धंस गए । तुमने पानी पीने के लिए सूड आगे बढ़ाई, परन्तु वह पानी तक पहुँची ही नहीं। तुम्हारी पीड़ा बढ़ गई। इतने में तुम्हारा एक शत्रु वहाँ आ पहुँचा-जिसे तुमने कभी मार पीट कर यूथ से निकाल दिया था । तुम्हें देखते ही उसका वैर जाग्रत हुआ । वह क्रोधपूर्वक तुम पर झपटा और तुम्हारा पीठ पर अपने दन्त-मूसल से प्रहार कर के चला गया । तुम्हें तीव्र वेदना हुई और दाहज्वर हो गया। सात दिन तक उस उग्र वेदना को भोग कर और एक सौ वाम वर्ष की आयु पूर्ण कर, आर्तध्यान युक्त मर कर इस दक्षिण भरत में गंगा नदी के दक्षिण किनारे, एक हथिनि के गर्भ में आये और हाथी के रूप में जन्मे । इस भव में तुम रका वर्ण के थे। तुम चार दाँत वाले ‘मेरु प्रभ' नाम के हस्ति-रत्न हुए । युवावस्था में युवती एवं गणिका के समान कामुक हथिनियों के साथ क्रीड़ा करते हुए विचर रहे थे। एक बार वन में भयंकर आग लगी। उसे देख कर तुम्हें विचार हुआ कि 'ऐसी आग मैने पहले भी कहीं-कभी देखी है।' तुम चिन्तन करने लगे। तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तुम्हें जातिस्मरण-ज्ञान हुआ और तुमने अपने पूर्व का हाथी का भव तथा दावानल-प्रकोपादि देखा । अब तुमने यूथ की रक्षा का उपाय सोचा और उस संकट से निकल कर वन में तुमने अपने यूथ के साथ एक योजन प्रमाण भूमि के वृक्ष-लतादि उखाड़ कर फेंक दिये और रक्षा-मण्डल बनाया। इसी प्रकार आगे भी वर्षाकाल में जो घास-फूस उगता, उसे उखाड़ कर साफ कर दिया जाता । कालान्तर में वन में आग लगी और वन-प्रदेश को जलाने लगी। तुम अपने यथ के साथ उस रक्षा-मण्डल में पहुँचे, किंतु इसके पूर्व ही अनेक सिंह, व्याघ्र, मृग, श्रृगाल आदि आ कर बिलधर्म के अनुसार (जैसे एक बिल में अनेक कीड़े-मकोड़े रहते हैं) जम गये थे। गजराज ने यह देखा, तो वह बिलधर्म के अनुसार घुस कर एक स्थान पर खड़ा हो गया । तुम्हारे शरीर में खाज चली । खुजालने के लिए तुमने एक पाँव उठाया और जब पाँव नाचे रखने लगे, तब तुम्हें पाँव उठाने से रिक्त हुए स्थान में एक शशक बैठा दिखाई दिया। तुम्हारे हृदय में अनुकम्पा जाग्रत हुई । प्राणियों की अनुकम्पा के लिए तुमने वह पाँव उठाये ही रखा । प्राणियों की अनुकम्पा करने से तुमने संसार परिमित कर दिया और फिर कभी मनुष्यायु का बंध किया। वह दावानल ढ़ाई दिन तक रहा और बूझ गया । मण्डल में रहे सब पशु चले गये । शशक भी गया । तुम पाँव नीचे रखने लगे, तुम भूख-प्यास, थकान, जरा, आदि से अशक्त हो गए थे । पाँव अकड़ गया था, अत: गिर पड़े। तुम्हारे शरीर में तीव्र वेदना हुई । दाहज्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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