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________________ रानी ने पुत्र जन्मते ही फिकवा दिया " तुम कैसी माता हो ? अपने प्रिय बालक को फिकवाते तुम्हारे मन में तनिक भा द नहीं आई ? एक चाण्डालिनी, दुराचारिणी और क्रूर स्त्री भी अपने पुत्र को नहीं फेंकतो, फिर भले ही वह गोलक (सधवा अवस्था में जार पुरुष द्वारा उत्पन्न ) अथवा ड (अवस्था में जार-पुरुष के संयोग से उत्पन्न ) हो । लो अब इसका पालन-पोषण करो।' चिल्लना पहले ता लज्जित हुई और नीचा मुँह कर के पति की भर्त्सना सुनती रही, फिर बाली; -- 11 " हे नाथ ! यह पुत्र रूप में आपका शत्रु है । इसके गर्भ में आते ही आप की घात हो जाय - ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ था । जब गर्भ में ही यह आपके कलेजे के मांस का भूखा था, तो बड़ा होने पर क्या करेगा ? पति का हित चाहने वाली पत्नी यह नहीं देखती कि वैरी पुत्र है या पुत्री ? वह एकमात्र पति का हित ही देखती है । आपके भावी अनिष्ट को टालने के लिये ही मैंने इसे फिकवाया था। आप इस शत्रु को फिर उठा लाये । कदाचित् भवितव्यता ही ऐसी हो" - कह कर चिल्लना ने पुत्र को लिया और एक सर्प को पाले, इस प्रकार विवशतापूर्वक स्तन पान कराने लगी । २५३ से कट गई थी । उकरड़ पर पड़े हुए बालक की अंगुली कुकड़े के पंख की रगड़ इससे अंगुली पक गई और पीड़ित करने लगी। इससे वह रोता बहुत था। राजा गोदी में ले कर उसकी अंगुली चूम-चूस कर पीप थूकने लगा । इस प्रकार बालक की अंगुली ठीक की । कुकुट द्वारा अंगुली कटने से बालक का नाम 'कुणिक' दिया । अशोक वन में ही राजा ने उसे प्रथम बार देखा था, इसलिये उसे 'अशोकचन्द्र' भी कहते थे । a कुणिक के बाद चिल्लना महारानी के दो पुत्र हुए- विहल्ल और वेहास | चिल्लना इन दो पुत्रों के प्रति पूर्ण अनुराग रखती थी और उत्तम रीति से पालन करती थी, परन्तु कु णक के प्रति उसका भाव विपरीत था । महारानी चिल्लना पुत्रों को कुछ वस्तु देती थी, तो कुणिक को कम और तुच्छ वस्तु देती थी और दोनों छोट पुत्रों को अधिक और अच्छी वस्तु देती थी। कुणिक उसका प्रिय नहीं था । किन्तु कुणिक इस भेदभाव का कारण अपनी माता को नहीं, पिता को हो मानता रहा । वास्तव में श्रेणिक के मन में द्विधा नहीं थी । पूर्वभव का वैरोदय ही इसका मूल कारण था । श्रेणिक ने राजकुमारी पद्मावती के साथ कुणिक के लग्न कर दिये । " * ग्रन्थकार दो भाइयों का नाम " हल्ल और व्हिल्ल" लिखते हैं, परन्तु अनुत्तरोववाई सूत्र में 'विहल्ल और वेहास " नाम लिखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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