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तीर्थकर चरित्र-भाग ३
कर रहा था। उसी के राज्य काल में सेनक तापस बसंतपुर आया । लोग उसके पास जाने लगे। लोगों ने पूछा-"आप तो मन्त्रीजी के पुत्र थे, तपस्वी क्यों बने ?" उसने कहा - "तुम्हारा राजा सुमंगल हर समय मेरी हँसी उड़ा कर अपमानित करता रहता था । इससे दुःखी हो कर ही मैं तपस्वी बना हूँ।" यह वात राजा तक भी पहुँची। राजा तपस्वी को नमन करने के लिये आया और वन्दन कर के बारबार क्षमा याचना की तथा तपस्या का पारणा अपने यहां करने का निवेदन किया। सेक तापस ने स्वीकार किया। राजा की प्रसन्नता हई कि तपस्वी ने क्षमा कर के उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। मासखमण के पारणे के दिन तपस्वी राजभवन के द्वार पर आया । उस समय राजा अस्वस्थ था। इसलिए किसी बाहरी व्यक्ति के मिलने पर प्रतिबन्ध था । तपस्वी को किसी ने पूछा तक नहीं । इसलिए वह लौट कर अपने स्थान चला आया और दूसरा मासखमण कर लिया। जब राजा स्वस्थ हआ तो उसे तपस्वी याद आया। उसने द्वारपाल से पूछा, तो तपस्वी के आने और लौट जाने की बात ज्ञात हुई । वह तत्काल तपस्वी के पास पहुंचा और पश्चात्ताप करता हुआ क्षमा माँगी । और पुन: आमन्त्रण दिया । तपस्वी शांत था । उसके मन में किसी प्रकार का खेद नहीं था। उसने राजा की अस्वस्थता के कारण हुई उपेक्षा समझ कर आगे का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया। अब राजा तपस्वी के पारणे के दिन गिनने लगा। दुर्भाग्य के उदय से राजा फिर रोग-ग्रस्त हो गया और तपस्वी को फिर यों ही लौट जाना पड़ा । राजा फिर तपस्वी के पास गया और अपने-आपको पापी, अधर्मी एवं दुर्भागी कहता हुआ क्षमा माँगने लगा । तपस्वी को भी राजा का अस्वस्थ होना ज्ञात हो च का था। उसने क्षमा कर दिया और अगले पारणे का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। तीसरे पारणे के दिन भी राजा अस्वस्थ हो गया। तपस्वी राज-भवन के द्वार पर पहँचा, तो अधिकारियों ने सोचा कि “जब-जब यह तपस्वी यहाँ आता है, तबतब महाराज के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है । लगता है कि इसका यहाँ आगमन ही अशुभ का कारण है । इस पापात्मा को यहाँ आने ही नहीं देना चाहिए।" उन्होंने द्वार-रक्षकों को आदेश दिया कि इस तपस्वी को यहाँ से निकाल कर बाहर कर दें।" रक्षकों ने तपस्वी को निकाल दिया। अब तपस्वी को क्रोध चढ़ा । उसे विश्वास हो गया कि 'राजा कपटी है।' वह पहले के समान मुझे दुःखी करना चाहता है । " मैं संकल्प करता हूँ कि अपने तपोबल से मैं राजा का वध करने वाला बनूं।"
तापस मृत्यु पा कर अल्प ऋद्धिवाला व्यंतर देव हुआ । राजा भी तापसी साधना कर के व्यन्तर हुआ। राजा का जीव देव-भव पूर्ण कर के कुशाग्रपुर नगर के प्रसेनजित
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