________________
धर्म-देशना
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान मैथुन और परिग्रह, इन पाँच पापों का सर्वथा त्याग कर के पाँच महाव्रतों का पालन करना चाहिए। इससे मनुष्य, सभी दुःखों का अन्त कर के मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
२२३
भगवान् महावीर प्रभु की धर्म देशना का कुछ स्वरूप 'उववाई' सूत्र में दिया है, जो इस प्रकार है ।
" भव्यों ! षट् द्रव्यात्मक लोक का अस्तित्व है और आकाशात्मक अलोक का भी अस्तित्व है । जीव है, अजीव है, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना और निर्जरा भी है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव होते हैं । नरक और नैरयिक भी हैं, तिर्यंच जीव हैं। ऋषि, देवलोक, देवता और इन सब से ऊपर सिद्धस्थान तथा उसमें सिद्ध भगवान् भी हैं । मुक्ति है । अठारह प्रकार के पाप-स्थान हैं और इन पाप-स्थानों में निवृत्तिरूप धर्म भी है । अच्छे आचरणों का फल अच्छा -- सुखदायक होता है और बुरे आचरणों का फल दुःखदायक होता है । जीव पुण्य और पाप के परिणाम स्वरूप बन्ध दशा को प्राप्त होता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है । पाप और पुण्य, अपनी प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल देते हैं ।
यह निर्ग्रथ प्रवचन ही सत्य है । यह उत्तमोत्तम, शुद्ध, परिपूर्ण और न्याय सम्पन्न है । माया निदान और मिथ्या - दर्शनरूप त्रिशल्य को दूर करने वाला है । सिद्धि, मुक्ति और निर्वाण का मार्ग है । निर्ग्रय-प्रवचन ही सत्य अर्थ का प्रकाशक है, पूर्वापर अविरुद्ध है और समस्त दुःखों को नाश करने का मार्ग । इस मार्ग पर चलने वाले मनुष्य समस्त दुःखों का नाश कर के सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाते हैं ।"
" जो महान् आरम्भ करते हैं, अत्यन्त लोभी ( परिग्रही ) होते हैं, पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हैं और मांस भक्षण करते हैं, वे नरक- गति को प्राप्त होते हैं ।"
Jain Education International
" मायाचारिता- कपटाई करने से, दांभिकता पूर्वक दूसरों को ठगने से, झूठ बोलने से और कम देने तथा अधिक लेने के लिए खोटा तोल-नाप रखने से, तिर्यञ्च आयु का बन्ध होता है ।"
" प्रकृति की भद्रता, विनयशीलता, जीवों की अनुकम्पा करने से तथा मत्सरता = अदेखाई नहीं करने से मनुष्य आयु का बन्ध होता है ।"
"L
'सराग-संयम से, श्रावक के व्रतों का पालन करने से, अकामनिर्जंग से और अज्ञान तप करने से देवगति के आयुष्य का बन्ध होता है ।"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org